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________________ ( ४३२ ) कल्याणकारके अथ पांडुरोगाधिकारः पांडुरोग निदान. अथ च पाण्डुगदांश्चतुरो वै पृथगशेषविशेषितदोषजान् । विदितपाण्डुगुणमविभावितान् अपि विभिन्नगुणान्गुणमुख्यतः ॥ ९१ ॥ भावार्थ:- - अब वात, पित्त, कफ व सन्निपात से उत्पन्न, जिन के होने पर शरीर में पाण्डुता आती है, दोषों के गौण मुख्य भेद से विभिन्न प्रकार के गुणों से युक्त हैं ( अर्थात् सभी प्रकार के पांडुरोगों में पांडुपना यह समानगुण [ लक्षण ] रहता है । लेकिनं वातज आदि मे दोषों के अनुसार भिन्न २ लक्षण भी मिलते हैं ) ऐसे चार प्रकार के पाण्डुरोगों को कहेंगे ।। ९१ ॥ वातज पांडुरोग लक्षण. असितमूत्रसिराननलोचनं । मलनखान्यसितानि च यस्य वै ॥ मरुदुपद्रवपीडितमातुरं । मरुदुदीरितपाण्डुगदं वदेत् ॥ ९२ ॥ भावार्थ:-मूत्र, सिरा, मुख, नेत्र, मल, नख आदि जिसके काले हों, और EE वा अन्य उपद्रवोंसे पीडित हो तो उसे बातविकार से उत्पन्न पाण्डुरोग समझना चाहिये । अर्थात् यह वातिक पांडुरोग का लक्षण हैं ॥ ९२ ॥ पित्तज पांडुरोग लक्षण. निखिलपीतयुतं निजपित्तजं धवलवर्णमपीह कफात्मजम् । सकलवर्णगुणत्रितयोत्थितं प्रतिवदेदथ कामलक्षणम् ॥ ९३ ॥ भावार्थ - उपर्युक्त अवयव जिसमें पीले हों [ पित्त के अन्य उपद्रव भी होते हैं ] उसे पित्तज पांडु समझें । और सफेद वर्ण हो ( कफजन्य अन्य उपद्रवों संयुक्त हो ) तो कफज पांण्डु कहें । और तीनों वर्ण एक साथ रहें तो सन्निपातज समझें । 1 कामला रोग के स्वरूप को कहेंगे ॥ ९३ ॥ अब आगे Jain Education International कामलानिदान. ' प्रशमितज्वरदाहनरोऽचिरादधिकमम्लमपथ्यमिहाचरेत् ॥ . कुपितपित्तमतोस्य च कामला मधिकशोफयुतां कुरुते सितां ॥ ९४ ॥ १ का बिल्यान्यथा इति पाठांतरे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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