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________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः । (६०७) पश्चात्तद्दसर्पणांगचलनपच्छर्दनोपद्रवा-। स्तेषां चाभिहितक्रमात्पतिविधि कुर्याद्भिपग्भेषजैः॥ तभिस्सर्पितमुष्णतैलपरिषिक्तं तद्दं पीडयेत् । वातव्याधिचिकित्सितं च सततं कृत्वाचरेद्रेषजम् ।। ७४ ॥ जीवशोणित लक्षण. जिह्वालंबनिकामुपद्रवगणे सम्यचिकित्सा मया । संमोक्ता खलु जीवशोणितमतः संलक्ष्यतां लक्षणैः ॥ यच्चोष्णोदकधौतमप्यतितरां नैवापसंसज्यते । स्वापभ्दक्षयतीह शोणितमिदं चान्यत्र पित्तान्वितं ॥ ७५ ।। भावार्थ:- अत्यंत स्नेहन स्वेदन किये हुए, अत्यंत मृदुकोष्ठवाले मनुष्य को, (वमन विरेचनार्थ ) अत्यतं तीक्ष्ण औषधि का सेवन करावे तो उस का अतियोग होता अत्यधिक वमन विरेचन होता है वमन के अतियोग से पित्त अधिक निकलता है। थकावट आती है व बलका नाश होता है एवं वातका प्रकोपन होता है । इसलिये उस मनुष्य को शीत जलसे स्नान कराकर, इक्षुरस व [चंद्रकिरण के समान] शीतगुण संयुक्त औषधियोंस विरेचन कराना चाहिये । प्रमाणसे अत्यधिक विरेचन होनेपर अर्थात् विरेचन का अतियोग होने से अधिक कफ निकलता है, पश्चात् रक्त भी निकलने लगता है, बल का नाश व वातका प्रकोप होता है । ऐसे मनुष्य को शीघ्र ही शीतल जलसे स्नान कराकर, अथवा तरेडा देकर, ठंडे दूध व घी से आस्थापन बस्ति और इन्हीसे प्रसिद्ध • अनुवासन बस्ति भी देवें । इसी प्रकार इस अतिसार के चिकित्सा में कहे गये, औषध व आहार के विधान से उपचार करें। पूर्वकथित वमन के अतियोग और भी उग्ररूप धारण करने पर, थूक में रक्त आने लगता है। रक्त का वमन होता है। दोनों आखें बाहर आती हैं। ( उभरी हुई होती हैं ) जीभ के रसग्रहणशक्ति का विनाश होता है और वह बाहर निकल आती है । एवं हिचकी, डकार, प्यास, मूर्छा, हनुस्तम्भ, ( ठोडी अकडना ) आदि उपद्रव होते हैं। इनकी योग्य चिकित्सा को अब क्रमशः कहेंगे। रक्तष्टीबन व वमन होनेपर रक्त की अतिप्रवृत्ति में जो चिकित्सा कही गई है उसीके अनुसार चिकित्सा करें । जीभ के बाहर निकल आनेपर; सेंधानमक, सोंठ, मिरच, पीपल इन के चूर्णसे जीभ को घिस-रगडकर ( मलकर ) उसे पीडन करें अंदर प्रवेश कर दें। जीभ के अंदर प्रवेश होनेपर, अन्य मनुष्य उस के सामने, दिखा २ कर खड़े निंबू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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