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केल्याणकारके
विशेष-मिथ्या आहार विहार दुष्टार्तव, शुक्रदोष, व दैववशात् योनि रोगकी उत्पत्ति होती है । इस के मुख्यतः वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, इस प्रकार ४ भेद हैं । लेकिन उन के एक २ से पांच २ प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । अर्थात् प्रत्येक के पांच • भेद हैं । इस प्रकार योनिरोग के भेद २० होते हैं ।
___ वातज योनिरोग. १ जिस योनिसे झाग [ फेन ] मिला हुआ रज बहुत कष्ट से बहें उसे उदावर्ता योनि कहते हैं।
२ जिस योनि का आर्तव नष्ट होगया हो उसे वंध्या कहते हैं। ३ जिसको निरंतर पीडा होती हो उसे, विप्लुता कहते है ।
४ मैथुन करने के समय में जिस में अत्यंत पीडा होती हो, उसे विप्लता योनिरोग कहते हैं।
५ जो योनि कठोर व स्तब्ध होकर शूल तोद युक्त होवें उस को वातला कहते हैं। ये पांचों योनिरोग इन में वातोद्रेक के लक्षण पाये जाते हैं, लेकिन वातला में अन्योंकी अपेक्षा अधिक लक्षण मिलते हैं।
पित्तजयोनि रोग। १ जिस योनि से दाह के साथ रक्त बहे उसे लोहितक्षया कहते हैं।
२ जो योनि रज से संयुक्त शुक्रको वात के साथ, वमन करें ( बहावें ) उसे वामिनी कहते हैं।
३ जो स्वस्थान से भ्रष्ट हो उसे प्रसंसिनी कहते हैं।
४ जिस योनिमें रक्त के कम होनेके कारण, गर्भ ठहर २ कर गिर जाता है उसे पुत्रघ्नी कहते हैं।
५ जो दाह, पाक [ पकना ] से युक्त हो, साथ ज्वर भी हो इसे पित्तला कहते हैं।
उपरोक्त पांचों योनिरोग पित्त से उत्पन्न होते हैं अतएव उनमें वित्तोद्रेक के लक्षण पाये जाते हैं । लेकिन पित्तला में पित्तके अत्यधिक लक्षण प्रकट होते हैं।
कफज योनिरोग। १ जो योनि, अत्यधिक मैथुन करने पर भी, आनंद को प्राप्त · न हे' उसे . अत्यानंदा कहते हैं।
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