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क्षुद्ररोगाधिकारः
(१२७)
२ जिस में कफ व रक्त के कारण से, कर्णिका [ कमल के बीच में जो कर्णिका होती है वैसे ही मांसकंद ] उत्पन्न हो उसे, कर्णिनी कहते हैं ।
३ जो योनि मैथुन के समय में अच्छी तरह मैथुन होनेके पूर्व अर्थात् जरासी मैथुन से ही, पुरुष के पहिले ही द्रवित हो जावें और इसी कारण से बीज को ग्रहण नहीं करें उसे अचरणा कहते हैं। ... .४ जो बहुवार मैथुन करने पर भी, पुरुष के पीछे द्रवीभूत होवें अत एव गर्भधारण न करें उसे अतिचरणा कहते हैं।
५ जो पिच्छिल ( लिबलिवाहट युक्त ) खुजली युक्त व अत्यंत शीत होवें उसे श्लेष्मला योनि कहते हैं । उपरोक्त पांचो रोगों में श्लेप्मोद्रेक के लक्षण पाये जाते हैं । श्लेष्मला में अन्यों की अपेक्षा अधिक लक्षण प्रकट होते हैं ।
सन्निपातज योनिरोग। १ जो योनि रज से रहित है, मैथुन करने में कर्कश मालूम होती है, (जिस स्त्री के रतन भी बहुत छोटे हो ) उसे पंण्डी कहते हैं।
२ बडा लिंगयुक्त पुरुष के साथ मैथुन करने से जो अण्ड के समान बाहर निकल आती है, उसे अण्डली [ अण्डिनी ] योनि कहते हैं।
३ जिस का मुख अत्यधिक विवृत [खुला हुआ ] है और योनि भी बहुत बडी है वह विवृता कहलाती है । ___- - ४ जिसके मुख सूई के नोक के सदृश, छोटी है उसे मूचीवक्त्रा योनि कहते हैं
५ जिस में तीनों दोषोंके लक्षण प्रकट होते हैं उसे, सन्निपातिका कह सकते हैं यद्यपि उपरोक्त पाचों रोगों में भी तीनों दोषोंके लक्षण मिलते है । सान्निपातिकामें उनका बाहुल्य होता है । ७४ ॥
__ सर्वज योनिरोगचिकित्सा. अखिलदोषकृतान्परिहत्य तान् पृथगुदीरितदोषयुतामयान् । उपचरेघृपानविरेचनैर्विधिकृतोत्तरबस्तिभिरप्यलम् ॥ ७५ ॥
भावार्थः -सन्निपातज योनिरोगोंको असाध्य समझकर छोडें और पृथक् २ दोषों से उत्पन्न योनि को घृत पान, विरेचन व बरित आदि प्रयोगसे उपचार करना चाहिये || ७५ ॥
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