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(४२८)
कल्याणकारके
वातलायोनिचिकित्सा. परुषकर्कशशूलयुतासु योनिषु विशषितवातहरौषधैः । परिविपकघटोद्भवबाष्पतापनमुशंति वशीकृतमानसाः ॥ ७६ ॥
भावार्थ -जिस योनिरोग में योनि कठिन, कर्कश व शूलयुक्त होती है उसे ( बातला योनिको ) वातहर विशिष्ट औषधियों से सिद्ध काढे को, एक घडे में भरकर उससे उत्पन्न, बाष्प [ बांफ ] से, ( कुंभी स्वेद से ) स्वेदन [ सेकना ] करना चाहिये । ऐसा मन को वशीभूत करनेवाले महापुरुषों (मुनियों ) ने कहा है ॥७६॥
__अन्य वातज योनिरोग चिकित्सा. लवणरर्गयुतमधुरोषधैः घृतपयोदधिभिः परिभावितैः । अनिलयोनिषु पूरणमिष्यते तिलजमिश्रितसत्पिचुनाथवा ॥ ७७ ॥
भावार्थ-वात विकारसे उत्पन्न [अन्य] योनिरोगों में लवणवर्ग और मधुरौषधियों को घृत, दूध व दही की भावना देकर चूर्ण करके योनि में भरना चाहिये अथवा तिल के तेल से भिगोया गया पिचु पोया] को योनि में रखना चाहिए ॥७७||
पित्तज योनिरोग चिकित्सा. तदनुरूपगुणौषधिसाधितैरहिमवारिभिरेव च धावनम् । अधिकदाहयुतास्वपि योनिषु प्रथितीतविधानमिहाचरेत् ।। ७८ ॥
भावार्थ--वातज योनिरोग से पीडित योनि को उस के अनुकूल गुणयुक्त [ वातनाशक ] औषधियोंसे सिद्ध [ पकाया हुआ] गरम पानी से ही धोना चाहिये । अत्यंत दाहयुक्त [ पैत्तिक ] योनिरोगों में शीतक्रिया करनी चाहिये ।। ७८ ।।
कफज योनिरोगनाशक प्रयोग. नपतरुत्रिफलाधिकधातकीकुसुमचूर्णवरैरवचूर्ण्य धा-- वनमपीह कषायकषायितैः कुरु कफोत्थितपिच्छिलयोनिषु ॥ ७ ॥
भावार्थ-जी योनि दुगंधयुक्त व पिच्छिल हो, उस पर अमलतास का गूदा त्रिफला, अधिक भाग ( पूर्वोक्त औषधियों की अपेक्षा ) धायके फूल, इन को अच्छीतरह चूर्ण कर के बुरखना चाहिए और [ इन्हीं ].कषैली औषधियों के काढे से धोना भी चाहिए ॥ ७९ ॥
१ घटोत्कट इति पाठांतरं २ परिपाचितैः इति पाठांतरं ।
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