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क्षुदरोगाधिकारः
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भावार्थ:- - यह नेत्र रोगवाला कूठ, हरड, नागरमोथा, इनसे पकाये हुए थोडा गरम, पानीको पीवें अथवा कटु, उष्ण औषधियोंसे सिद्ध अडहर के रस ( जल ) को पीवें, वह हितकर है ॥ १५६ ॥
अभिष्यंदकी उपेक्षा से अधिमथकी उत्पत्ति.
उपेक्षणादक्षिगतामया इमे । प्रतीतसत्स्यंदविशेषनामकाः । स्वदोषभेदैर्जनयति दुर्जयान् । परानधोमन्धनसंभिधानकान् ॥ १५७ ॥ भावार्थ:- यदि इन अभिष्यंद नामक प्रसिद्ध नेत्ररोगोंकी उपेक्षा की जाय, अर्थात् सकालमें योग्य चिकित्सा न करे तो वे अपने २ दोषभेदों के अनुसार दुर्जय ऐसे अधिमंथ नामक दूसरे रोगोंको पैदा करते हैं । जैसे कि कफाभिष्यंद हो तो कफाधिमंथको, पित्ताभिष्यंद पित्ताधिथको उत्पन्न करता है इत्यादि जानना चाहिये ॥ १५७ ॥
अधिमथका सामान्य लक्षण.
भृशं समुत्पाट्य त एव लोचनं । मुहु मुहुर्मध्यत एव सांप्रतम् ॥ शिरोऽर्धमप्युगतरातिवेदनम् । भवेदधीमन्थविशेषलक्षणम् ॥ १५८ ॥
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भावार्थ:- - जिसमें एकदम आंख उखंडती जैसी मालुम होती हो और उनको कोई मथन करते हो इस प्रकारकी वेदना जिसमें होती हो एवं अर्धमस्तक अत्यधिक रूपसे दुखता हो उसे अधिमन्थ रोग समझें अर्थात् यह अधिमंथ रोगका लक्षण है ॥ १५८॥ अधिमंथो में दृष्टिनाश की अवधि.
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कफात्मको वातिकरक्तजौ क्रमात् । ससप्तषट्पंचभिरेव वा त्रिभिः || क्रियाविहीनाः क्षपयंति ते दृशं । प्रतापवान् पैत्तिक एव तत्क्षणात् १५९
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भावार्थ:- -कफज, वातज व रक्तज अधीमन्थ की यदि चिकित्सा न करें तो क्रमसे सात छह व पांच दिनके अंदर आखोंकों नष्ट करता है । अर्थात् कफज अधिमंथ सात दिन में, वातिक अधिमंथ छह दिन में, रक्तज अधिमंथ पांच या तीन दिन में दृष्टिको नष्ट करता है । पैत्तिक अधिनं तो उसी समय आंखोंको नष्ट करता है ॥ १५९ ॥
अधिमथचिकित्सा.
अतस्तु दृष्टिक्षयकारणामयान् । सतो द्यधमन्थगुणान्विचार्य तान् ॥ चिकित्सितैशीघ्रमिह प्रसाधये । द्भयंकरान् स्यंदविशेष भेषजैः ॥ १६०॥
१ इस अधिमंथ के अभिष्यंद के समान वातज, पित्तज कफज, रतन, इस प्रकार चार भेद हैं।
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