________________
महामयाधिकारः
(१९३ )
भावार्थ:-यह प्रमेइ, वात, पित्त, कफ, इन दोषोंसे, उत्पन्न होने पर भी दोषभेद, घ दोषों के गौण मुख्य भेद के कारण, अनेक प्रकारका होता है । जैसे, नाटक में एक ही वेषधारी, अनेक रस व स्वभाव में मग्न रहता है वैसे ही यह प्रमेह अनेक प्रकारका होता है । सम्पूर्ण प्रमेह, स्वभाव से ही दुर्जय होते हैं ॥ ९ ॥
. प्रमेहका लक्षण । स पूर्वरूपेषु बहूदकं यदा । सवेत्प्रमेहीति विनिर्दिशेनरं ॥ प्रमीढ इत्येव भवत्पमेहवान । मधुप्रमही पिटकाभिरन्वितः ॥१०॥
भावार्थ:-जब पूर्वरूप प्रकट होते हुए यदि अधिक मूत्र को विसर्जन करने लगेगा तब उसे प्रमेह रोग कहना चाहिए। प्रमेहवान् को प्रमीढ ऐसा कहते हैं । यदि प्रमेहकी चिकित्सा शीघ्र नहीं की जावे तो, वही कालांतरमें मधुमेहके रूपको धारण कर लेता है । इसलिए रोगी मधुमेही कहलाता है एवं प्रमेहपिटिका (फुशी ) से युक्त होता है ॥१०॥
दशविध प्रमेहपिटकाः। शराविका सर्पपिका सजालिनी । सपुत्रिणी कच्छनिका ममरिका ।। विदारिका विद्रधिकालनी पता । प्रमेहिणां स्थुः पिटका दशैव ताः ।।११॥
भावार्थ:-शराविका, सर्पपिका, जालिनी, पुत्रिणी, कच्छपिका, मसूरिका, विदारिका, विद्रधिका, अलजी, विनता, इस प्रकार वह प्रमेहपिटक दश प्रकारके हैं ॥११॥
शराविकालक्षण। समंचका क्लेदयुतातिवेदना । सनिम्नमध्योन्नततोष्ठसंयुता ॥ शरावसंस्थानवरमभाणता । शराबिकेति प्रतिपाद्यते बुधैः ॥ १२ ॥
भावार्थः-वह पिटक अनेक वर्ण व स्राव युक्त हो, अतिवेदनायुक्त हो उसका मध्यभाग नीचा व 'किनारा ऊंचा होकर सरावेके आकार में हो तो उसको विद्वान् छो। शराविका कहते हैं ॥ १२॥
सर्पपिका लक्षण । सशीघ्रपाका महती सवेदना। ससर्पपाकारसमप्रमाणता ॥ समूक्ष्मका स्वल्पधना द्विधा च सा। प्रभाषिता सर्षपिका विदग्धकैः।।१३॥
भावार्थ:-जल्दी पकनेवाला, अतिवेदनासे युक्त, सरसौके आकार के बराबर होता हो, छोटे २ हो, ऐसे पिटकोंको विद्वान् लोग सर्षपिका कहते हैं ॥ १३ ॥
२५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org