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कल्याणकारके
आगंतुक्षवथुलक्षण.
सुतीक्ष्णचूर्णान्यतिजिघ्रतापि वा । निरीक्षणादुष्णकरस्य मण्डलम् | स्वनासिकांतस्तरुणास्थिघट्टनात् । प्रजायमानः क्षवथुर्विनश्यति ॥ ३५ ॥
( ३१६ )
भावार्थ:- तीक्ष्ण चूर्णोको बार २ सूंघनेस, सूर्यमंडल को अधिक देखने से, एवं नाककी तरुण हड्डी को चोट लगने से उत्पन्न होनेवाली छींक को, आगंतु वधु कहते हैं । यह अपने आप ही नाश हो जाता है ॥ ३५ ॥
महाभ्रंशन लक्षण व चिकित्सा.
ततो महाभ्रंशननामरोगतः । कफीतिसांद्रो लवणः समूर्धतः ॥ निरीक्ष्य तत्संशिरसोवपीडनै । विंशोधनैरक्रममर्मसंचितम् || ३६ || भावार्थ: - मस्तक के मर्मस्थान में पहिले संचित, [ सूर्य किरणों से पित्त के तेजसे तप्त होकर ] गांढा व खारा कफ, मस्तक से निकलता है इसे महाभ्रशन (श, प्रशशु ) रोग कहते हैं । इस को अवपीडन व विरेचन नस्य के प्रयोग से जीतना चाहिये || ३६॥
नासाप्रतिनाह लक्षण व चिकित्सा.
उदानवातोतिकफप्रकोपत- । स्सदैव नासाविवरं वृणोति यत् ॥ तमाशुनासाप्रतिनाहसंयुतैः । सुधूमनस्योत्तरवस्तिभिर्जयेत् ॥ ३७ ॥
भावार्थ::- उदानवात कफके अत्यंत प्रकोपसे नासारंध्र में आकर भरा रहता है । अर्थात् नासा रंध्रको रोक देता । इसे नासा प्रतिनाह कहते हैं । इसको शीघ्र धूम, नस्य व उत्तरबस्ति किंवा उत्तमांगबस्तियों के प्रयोगसे जीतना चाहिये ॥ ३७ ॥
नासापरिस्राव लक्षण व चिकित्सा.
अहर्निशं यत्कफदोषकोपतः । स्त्रवत्यजस्रं सलिलं स्वनासिकाम् || ततः परित्राविविकारिमूर्जितां । जयेत्कफघ्नौषधचूर्णपीडनैः ॥ ३८ ॥
भावार्थ:- रात दिन कफदोषके प्रकोप से नाकसे पानी निकलता रहता है उसे नासा परिस्राविरोग कहते हैं । उसे कफहर औषधि व अवपीडन, नस्य आदिसे जीतना चाहिये || ३८ ॥
नासापरिशेोष लक्षण व चिकित्सा.
कफोतिशुष्कोधिकपित्तमारुतैः । विशेोषयत्यात्मनिवासनासिकां ॥ ततोत्र नासापरिशेोषसंज्ञितं । जयेत्सदा क्षीरसमुत्थसर्पिषा ।। ३९॥
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