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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(३१५)
इसे पूतिनासा (पूतिनस्य) रोग कहते हैं। इसमें गले को एवं शिरोविरेचन औषधियोंसे शिरको, शुद्धि करना चाहिये ॥ ३० ॥
नासापाक लक्षण व चिकित्सा. ..अरूंषि पित्तं कुपितं स्वनासिका- । गतं करोत्येवमतो हि नासिका ॥
विपाकरोग समुपाचरेद्भिषक् । क्षतद्रवैः पित्तविसर्पभेषजैः ॥ ३१ ॥
भावार्थ:-प्रकुपित वित्त, नाकमें ( जाकर ) उतरकर फुसीको उत्पन्न करता है (एवं नाकके भीतरका भाग पकजाता है) इसे नासापाक रोग कहते हैं । इसकी, क्षतरोग के लिये उपयुक्त द्रव व पित्तविसर्परोगोक्त औषधियोंसे चिाकमा करनी चाहिये ॥३१॥
पूयरक्त लक्षण व चिकित्सा. - ललाटदेशे क्रिमिभाक्षितक्षतैः । विदग्धदोषरभिघाततापि वा ॥
सपूयरक्तं स्रवतीह नासिका । ततश्च दुष्टवणनाडिकाविधिः ॥ ३२ ॥
भावार्थ:--ललाट स्थानमें कीडोंके खाजानेके घायस प्रकुपित दोषोंके कारणसे अथवा चोट लगनेसे नाकसे पूय ( पीब ) सहित रक्तस्राव होता है इसे, पूयरक्त रोग कहते हैं । इसमें दुष्टत्रण ( दूषित जखम ) व नाडीव्रण में जो चिकित्सा विधि बतलाई है उस ही चिकित्साका प्रयोग करना चाहिये ॥ ३२ ॥
दीप्तनासा लक्षण व चिकित्सा. सरक्तपित्तं विहितक्रमर्जयेत् । प्रदीप्सनासामपि पित्तकोपतः । महोष्णनिश्वासविदाहसंयुता- । मुपाचरेत्पित्तचिकित्सितैर्बुधः ॥ ३३॥
भावार्थ:-पित्तके प्रकोपसे, नाकमें अत्यधिक जलन होती है, और गरम (धूवांके सदृश ) निश्वास निकलता है इसे दीतनासा रोग कहते हैं । इस रोगका रक्तपित्त व पित्तनाशक चिकित्सा क्रमसे उपचार करना चाहिये ॥ ३३ ॥
क्षषथु लक्षण व चिकित्सा. स्वानासिकामर्मगतोऽनिलोभृशं । मुहुर्मुहुश्शद्वमुदीरयत्यतः। स एव साक्षात्क्षवथुः प्रजायते । तमत्र तीक्ष्णैरवपीडनैर्जयेत् ॥ ३४ ॥ .
भावार्थ:- नासिका के मर्मस्थानमें गया हुआ वात प्रकुपित होकर बार २ कुछ २ शब्द करते हुए नाकसे बाहर निकल आता है तो वहीं साक्षात् क्षवथु [छींक] बन जाता है। अर्थात् उसे क्षबथु कहते है। उसे अतितीक्ष्ण अवपीडन या नस्य के द्वारा उपशमन करना चाहिये ! ३४ ॥
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