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________________ पित्तरोगाधिकार: अथ प्रदराधिकारः। असग्दनिदान व लक्षण संतापगर्भपतनातिमहाप्रसंगात् । योन्यां प्र,त्तमनुतावभिघाततो वा ॥ रक्तं सरक्कमनिलान्वितपित्तयुक्तं। स्त्रीणामसग्दर इति प्रवदंति संतः ॥ ३० ॥.... ___ भावार्थः---स्त्रीयों को, संताप से, गर्भपात, अतिमैथुन व अभिघातले ऋतुसमय को छोडकर अन्य समय में रक्त, वात, व पित्तयुक्त रजोभूत रक्त जो योनिसे निकलता : "है, उसे सत्पुरुष असृग्दर (प्रदर ) कहते हैं ।। ३० ॥ प्रदर चिकित्सा नीलांजनं मधुकतण्डुलमूलकल्क-। मिश्रं सलोध्रकदलीफलनालिकेर-॥ तोयेन पायितमसृग्दरमाशु हंति । ..... पिष्टं च सारिवमजापयसा समेतं ॥ ३१ ॥ भावार्थ:--कालासुरमा, मुलटी, चौलाई की जड इन के कल्क से मिश्रित पठानीलोध, कदलीफल ( केला ) और नारियल के रस [ काथ आदि ] को प्रीनेसे और अनंतमूल को बकरी के दूध के साथ पीसकर पीनेसे, प्रदर रोग शीघ्र ही नाश हो जाता है ॥ ३१ ॥ अथ विसाधिकारः। विसर्पनिदान चिकित्सा। पित्तात्क्षतादपि भवत्यचिराद्विसर्पः। शोफस्तनोविसरणाच्च विसर्पमाहुः ॥ शीतक्रियामभिहितामनुलेपनानि । तान्याचरेत्कृतविधि च विपाककाले ॥ ३२ ॥ भावार्थ:-पित्त प्रकोपसे, क्षत (जखम) हो जाने से, शीघ्र ही विसर्प नामक - रोगकी उत्पत्ति होती है । शरीरमें सूजन शीन ही फैलती है । इसलिये इसे विसर्प कहते हैं। उसके प्रकोप काल में शीतपदार्थो की प्रयोग विधि जो पहिले बतलाई गई है उसका एवं लेपन वगैरह का प्रयोग वमनविरेचन आदि योग्य क्रिया करके करना चाहिये ॥३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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