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कल्याणकारके
विसर्प का भेद वातात्कफात्त्रिभिरपि प्रभवेद्विसपः। शोफःस्वदोपकृतलक्षणसज्वरोऽयम् ॥ तस्माज्ज्वरप्रकरणाभिहितां चिकित्सां ।
कुर्यात्तथा मरुद विहितोपधानि ॥ ३३ ॥ भावार्थ:-इसी प्रकार वातसे, कफसे एवं वातपित्तकफसे भी विसर्प रोग की उत्पत्ति होती है । इसमें विसर्प की सूजन अपने २ दोषोंके लक्षण से संयुक्त [ यथा वातिक विसर्प में वात का लक्षण प्रकट होता है, पैत्तिका हो तो पित्त का लक्षण होती है । एवं ज्वर भी पाया जाता है । इसलिये ज्वर प्रकरणमें कही हुई चिकित्सा एवं वातरक्तके लिये कथित औषधियों के प्रयोग करना चाहिये ॥ ३३ ॥
विसर्प का असाध्यलक्षण । स्फोटान्वितं विविधतीव्ररुजा विदाह-। मत्यर्थरक्तमतिकृष्णमतीवपीतम् ॥ मर्मक्षतोद्भवमपीह विसर्पसंप ।
तं वर्जयेदाखिलदोषकृतं च साक्षात् ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-जो विसर्प रोग फफोलोंसे युक्त हो, नाना प्रकारकी तीन पीडा सहित हो, अत्यधिक दाहसे युक्त हो, रोगी का शरीर अत्यन्त लाल, काला वा अत्यन्त पीला हो, मर्मस्थानों के क्षत के कारण उत्पन्न हुआ हो, वा सान्निपातिक हो तो ऐसे विसर्प रोगरूपी सर्प को असाध्य समझकर छोड देना चाहिये । ॥ ३४ ॥
अथ वातरक्ताधिकारः
वातरक्त चिकित्सा। वातादिदोषकुपितेष्वपि शोणितेषु । पादाश्रितेषु परिकर्मविधि विधारये ॥ संख्यानतस्सकललक्षणलक्षितेषु ।।
संक्षेपतः क्षपितदोषगणः प्रयोगैः॥३५॥ भावार्थ:-वात आदि दोषों द्वारा कुपित रक्त, पाद को प्राप्त कर जो रोग उत्पन्न करता है, जिसकी संख्या व लक्षणों को पहिले कह चुके हैं ऐसे वातरक्तनामक रोग की चिकित्सा, तत्तद्दोषनाशक प्रयोगों के साथ २ आगे वर्णन करेंगे ॥ ३५॥
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