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________________ (५९०) कल्याणकारके भावार्थ:--भ्रू पुच्छ के ऊपर ललाट व कर्ण के बीच में शंखनामक दो मर्म स्थान हैं। जिनपर आघात होने से सद्य ही मरण होता है । भ्र के ऊपर के भाग में बावर्त नामक दो मर्मस्थान हैं। जिनपर आघात होने से दोनों आंखे नष्ट हो जाती हैं। शंखमों के ऊपर की सीमा में “ उत्क्षेपक” नामक दो मर्मस्थान है । इन में शल्य ( तीर ) आदि लगे तो जबतक उन में शल्य घुसा रहें तबतक मनुष्य जीता है। अथवा स्वयं पक कर वह शल्य अपने आप ही गिरजावे तो भी जीता है । लेकिन वह शल्य खींच कर निकाल दिया जावे तो उसी समय मृत्यु होती है। दोनों भ्रुओं के बीच में " स्थपनी" नाम का मर्म है । उस में आघात होने से, उत्क्षेपकमर्म जैसी घटना होती है । शिर में पांच महासंधियां [जोड ] हैं। वे पांच ही संधि " सीमंत' नाम से ५ मर्म कहलाते हैं। वहां आघात पहुंचने से चित्तविभम व पागलपना होकर, मृत्यु भी होजाती है ॥ ६९ ॥ ७० ॥ श्रृंगाटक अधिमर्मरक्षण. जिहाघ्राणश्रवणनयनं स्वस्वसंतर्पणीनां । मध्ये चत्वार्यमालिनशिराणां च श्रृंगाटकानि ॥ सद्यो मृत्यून्यधिकृतशिरासंधिबंधैकसंधौ । केशावर्तावधिपतिरिति क्षिप्रमृत्युः प्रदिष्टः ॥ ७१ ॥ भावार्थ:-जीभ, नाक, कान, आंख इन को तर्पण [ तृप्त ] करनेवाली चार प्रकार की निर्मल शिराओं के चार सन्निपात (मिलाप ) रहते हैं। वे शिरासान्निपात " श्रृंगाटक" नाम के मर्म हैं। वे चार हैं। इन में आघात पहुंचने से उसी समय मृत्यु होती है । मस्तक में [ मस्तक के अंदर ऊपर के भाग में ] जो शिरा और संधि का मिलाप है और जहां केशों के आवर्त [ भंवर ] है। वही " अधिपति" नामक मर्मस्थान है । यहां अभिघात होने से शीघ्र ही मरण होता है ॥७१॥ सम्पूर्ण मर्मोके पांच भेद. सप्ताधिकत्रिंशदिहोत्तमांगे मर्माणि कंठप्रभृतीष्वशेषा-1 ण्युक्तानि पंच प्रकराण्यथास्थिस्नायूरु संध्युग्रशिरास्स्वमासैः ॥७२॥ भावार्थ:-इस प्रकार कंठ को आदि लेकर मस्तक पर्यंत सैंतीस मर्मस्थान कहे गये हैं। एवं वे मर्मस्थान, अस्थि, स्नायु, संधि, शिरा व मांस के भेदसे पांच प्रकार से यथा=अस्थिमर्म, स्नायुमर्म, संधिर्म, शिरामर्म व मांसमर्म विभक्त हैं ॥ ७२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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