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(१७३)
कल्याणकारकै
भावार्थ:-आठ प्रकार के व्यंतर, दस प्रकार के भवनवासी देव, अपने वकियक शक्तिसे मनुष्यों के साथ हमेशा निवास करते हैं जो अपने २ खास लक्षणों से देखे जाते हैं ।। ११६ ॥
ग्रहपीडाके योग्य मनुष्य. तत्प्रयुक्तपरिवारकिंनरा मानुषानभिविशंति मायया । भित्रशून्यगृहवासिनोऽशुचीनक्षतान् क्षययुतानधर्मिणः ॥११७॥
भावार्थ:-उन देवताओं परिवार रूपमें रहनेवाले किनर अपने स्वामी से प्रेरित होकर एकांत में, सूने घरमें रहनेवाले, अपवित्रा, धर्मद्रोही, व धर्माचरण रहित मनुष्योंको मायाचारसे पीडा देते हैं ॥ ११७ ॥
देवताविष्टमनुष्य की चेष्टा. स्वामिशीलचरितानुकारिणः किन्नराश्च बहवस्स्वचेष्टितै-। राश्रयंति मनुजानतो नरास्तत्स्वरूपकृतवेषभूषणाः ॥ ११८ ॥
भावार्थ:-अपने स्वामी के स्वभाव व आचरण को अनुसरण करने वाले स्वामी की आज्ञा पालन के लिये बहुत से किनर अपनी २ चेष्टाओं के साथ मनुष्यों के पीछे लग जाते हैं जिससे मनुष्य भी उन्हीं के समान वेष ध भूषा से युक्त होते हैं ॥ ११८ ॥
देवपीडित का लक्षण. पण्डितोऽति गुरुदेवभक्तिमान् गंधपुष्पनिरतस्सुपुष्टिमान् । भास्वरानिमिषलोचनो नरो न स्वपित्यपि च देवपीडितः ॥ ११९ ॥
भावार्थ:-देवद्वारा पीडित मनुष्य का आचरण बुद्धिमानों के समान मालुम होता है। और वह देव गुरुओमें विशेष भक्तिको प्रकट करता है। सदा गंधपुप्पको धारण किया हुआ रहता है । उसका शरीर पुष्ट रहता है, उसकी आंखें तेज व खुली हुई रहती हैं। और वह सोता भी नहीं है ॥ ११९ ॥
असुरपीडित का लक्षण. निंदतीह गुरुदेवताःस्वयं वक्रदृष्टिरभयोऽभिमानवान् । स्वेदनातिपरुषो न तृप्तिमानीगेष पुरुषोऽसुरार्दितः ॥ १२० ॥
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