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________________ (४७२) कल्याणकारके भावार्थ:-राक्षसग्रहपीडित बालक को हरड, सफेद सरसों, वच, जटामांसी इनकी पोटली आदि बनाकर पहनाना चाहिये । एवं पुप्पमाला, नाना प्रकार के भक्ष्य, तिल व चावल से ग्रहाविष्ट शिशु का पूजन वृक्ष के नीचे करना चाहिये ॥ ११२ ॥ राक्षसग्रहगृहीत का स्नानस्थान व मंत्र आदि. स्नापयेदरपीडितं शिशुं क्षीरवृक्षनिकटे विचक्षणः ।। जैनशासनविशेषदेवतारक्षणैरपि च रक्षयेत्सदा ॥ ११३ ॥ भावार्थ:-उस राक्षसग्रहपीडित बालक को बुद्धिमान् वैद्य दूधिया (वड पीपल आदि ) वृक्ष के पास में ले जा कर स्नान करावें । एवं जैनशासन देवता सम्बन्धी मंत्र व यंत्र के द्वारा भी उस बालक की रक्षा करनी चाहिये ।। ११३ ।। देवताओं द्वारा बालकों की रक्षा. व्यंतराश्च भवनाधिवासिनोऽष्टप्रकारविभवोपलक्षिताः। पांति बालमशुभग्रहार्दितं स्पष्टमृष्टबालितुष्टचेतसः ॥ ११४ ॥ भावार्थ:-अष्ट प्रक.र के विभवोंसे युक्त भवनवासी व्यतरादिक सम्यग्दृष्टि देव यदि उन को अनेक प्रकार से मनोहर गंध पुप्प नैवेद्य आदि से आदर करें तो उस से . प्रसन्न होकर अशुभग्रह से पीडित बालक की रक्षा करते हैं ॥ ११४ ।। इति बालग्रहनिदान चिकित्सा. अथ ग्रहरोगाधिकारः। ग्रहोपसर्गादि नाशक अमोघ उपाय. यत्र पंचपरमेष्ठिमंत्रसन्मंत्रितात्मकवचान्नरोत्तमान् । पीडयंति न च तान् ग्रहोपसर्गामयाग्निविषशस्त्रसंभ्रमाः ॥ ११५ ॥ भावार्थ:-जिन्होने सदा पंचपरमेष्ठियों का नामस्मरण से अपनी आत्मा को पवित्र बनालिया हैं, उनको ग्रहपीडा सम्बन्धी रोग, अग्नि विष, शस्त्र आदि से उत्पन्न दुःख नहीं होत हैं ॥ ११५॥ मनुष्यों के साथ देवताओं के निवास. मानुषैस्सह वसंति संततं व्यंतरोरगगणा विकुर्वणैः। ते भवंति निजलक्षणेक्षिता अष्टभेददशभेदभेदिताः ॥ ११६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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