SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बालग्रहभूततंत्राधिकारः। (४७४) भावार्थ:-असुर के द्वारा पीडित मनुष्य देव गुरुवोंकी निंदा करता है, उसकी दृष्टि वक्र रहती है, वह किसी से भय नहीं खाता और अभिमानी होता है । उस के शरीर से पसीना बहता रहता है एवं कठोर रहता है, उसे कितना भी खावे तो तृप्ति नहीं होती ॥१२०॥ गंधर्वपीडित का लक्षण. क्रीडतीह वनराजिस्म्यहोचशैलपुलिनेषु हृष्टवान् । गंधपुष्पपरिमालिकाश्च गंधर्वजुष्टपुरुषोभिऽवांछति ॥ १२१ ।। भावार्थ:-गंधर्व से पीडित मनुष्य जंगल, सुंदर महल, ऊंचे पहाड व नदीके किनारे आदि प्रदेश में बहुत हर्ष के साथ खेलता रहता है। एवं सदा गंध, पुष्पमाला आदिको चाहता रहता है ॥ १२१ ॥ यक्षपीडित का लक्षण. ताम्रवक्त्रतनुपादलोचनो याति शीघ्रमतिधीरसत्ववान । प्रार्थितः स वरदो महाद्युतिर्यक्षपीडितनरस्सदा भवेत् ॥ १२२ ॥ भावार्थ:-यक्ष से पीडित मनुष्य का मुख, शरीर, पाद, आखें लाल रहती हैं, वह शीघ्रगामी व अत्यंत धीर व शक्तिशाली ( अथवा बुद्धिमान् ) रहता है। प्रार्थना करनेपर वह वर देता है । और उस का शरीर महाकांतियुक्त रहता है ॥ १२२ ॥ भूतपितृपीडितका लक्षण. तर्पयत्यपि पितृन्निवापदानादिभिर्जलमपि प्रदास्यति । पायसेक्षुगुडमांसलोलुपो दुष्टभूतपितृपीडितो नरः ॥ १२३ ॥ भावार्थ:-दुष्ट भूतापित से पीडितमनुष्य पितरों के उद्देश्य से निवाप [ तर्पण ] दान आदि से उन का तर्पण करता है और जलका तर्पण भी देता है। एवं वह खीर ईख, गुड व मांस को खाने में लोलुपी रहता है ॥ १२३ ॥ राक्षस पीडित का लक्षण. मांसमद्यरुधिरपियोऽतिशरोऽतिनिष्ठुरतरः स्वलज्जया । वर्जितोऽतिबलवानिशाचरः शोफरुग्भवति राक्षसो नरः ॥१२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy