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________________ . ( १५४ ) कल्याणकारके निवादि क्वाथ निवाम्रमंबुदपटोलसुचंदनानां । का गुडेन सहितं हिमशीतलं तम् ॥ पीत्वा सुखी भवति दाहतृषाभिभूतः । विस्फोटशोषपरितापमसूरिकासु ॥ १४ ॥ भावार्थ:- निंबु, आम, नागरमोथा, पटोलपत्र, चंदन, इनके कषायमें गुड मिलाकर चांदनी में रखकर ठण्ड करें। फिर उस कषायको पीनेसे पित्तोद्रेकसे उत्पन्न फफोले, शोष मसूरिका आदि रोगो में यदि दाह तृपा आदि पीडा हो जायें तो सर्व शमन होते हैं, जिससे रोगी सुखी होना है। ॥ १४ ॥ रक्तापचनिदान • वाताभिघातपरितापनिमित्ततो वा । पित्तप्रकोपवशतः पवनाभिभूतम् ॥ रक्तं प्लिहा यदुपाश्रितमाशु दुष्टं । कष्टं संवेद्युगदूर्ध्वमधः क्रमाद्वा ॥ १५ ॥ भावार्थ:- वात व अभिवातसे, संताप होने से, पित्त प्रकोप होकर दूषित वायु यकृत् लिहा आश्रित रक्तको दूषित करता है। उससे नीचे ( शिश्न, योनि, गुदामार्ग ) सेवा ऊपर ( आंख, कान, मुख ) से या दोनों मार्गसे रक्तस्राव होने लगता है इसे रक्तविरा रोग कहते हैं ॥ १५ ॥ Jain Education International रक्तपित्तका पूर्वरूप | तस्मिन्भविष्यति गुरूदरदाहकण्ठ- । धूमायनारुचिबलक्षयरक्तगंध - । निश्वासता च मनुजस्य भवंति पूर्व- । रूपाणि शोधनमधः कुरु रक्तपित्त ।। १६ । भावार्थ:: :- रक्त पित्त होनेके पूर्व उदर गुरु होता है । शरीर में जलन उत्पन्न होती है एवं कंठसे धूंआ निकलता हो जैसा मालूम होता है । अरुचि, बलहीनता, श्वासोच्छ्रासमें रक्तका मंत्र इत्यादि लक्षण प्रकट होते हैं । इस रक्तपित्तमें अधः शोधून "विरेचन) करना उपयोगी है ।। १६ ।। १ ऊर्ध्वगत रक्त पित्त हो तो विरेचन देना चाहिये. अधोगत में वमन देना योग्य हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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