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________________ भेषजकीपद्रवचिकित्साधिकारः। (६२१) प्रयोग करें तो वह भयंकर अतियोग को उत्पन्न करता है । ऐसी अवस्था मुलेठी, दूध, घी इन से यथासुख ( जैसे सुख हो । बस्ति देकर अतियोग को शमन करें ॥ ११८ ॥ ११९ ।। १२० ॥ १२१ ॥ जीवादान व उस की चिकित्सा. इहातियोगेऽप्यतिजीवशोणितं । प्रवर्तते यत्खलु जीवपूर्वकम् ।। तदेवमादानमुदाहृतं जिन- । विरेचनाक्तं सचिकित्सितं भवेत् ॥१२२॥ भावार्थ:--पूर्वोक्त अतियोग के बढ़ जाने पर जीवशोणित. [ जविन के प्राणभूत रक्त ] की अधिक प्रवृत्ति होती हैं। इसे ही जिनेंद्र भगवान् ने जीवादान कहा है। इस अवस्था में विरेचन के अतियोग में प्रतिपादित चिकित्साविधि के अनुसार चिकित्सा करें ॥ १२२॥ बस्तिव्यापद्वर्णनका उपसंहार. इत्येवं विविधविकल्पबस्तिकार्य-। व्यापत्सु प्रतिपदमादराच्चिकित्सा। व्याख्याता तदद्ध यथाक्रमेण । बस्तिव्यापारं कथितमपीह संविधास्ये ॥१२३॥ भावार्थ:- इस प्रकार अनेक प्रकार के भेदों से विभक्त वस्तिकर्म में होने वाली व्यापत्तियों को एवं उनकी चिकित्साओं को भी आदरपूर्वक निरूपण किया है। इस के अनन्तर बस्तिविधि का वर्णन पहिले कर चुकने पर भी फिर से इसी विषय का [ कुछ विशेषरूप से ] क्रमश: प्रतिपादन किया जायगा ।। १२३ ।। अनुबस्तिविधि. शास्त्रज्ञः कृतवति सद्विरेचनेऽस्मिन् । सप्ताहर्जनितबलाय चाहताय ॥ स्नेहान्य कथितसमस्तबस्तिकार्य । तं कुर्यात्पुरुषवयो बलानुरूपम् ॥ १२४ ॥ भावार्थ-जब श्रेष्ठ विरेचन देकर सात दिन बीत जावे, रोगी के शरीर में बल भी आजाये तो उसे पथ्यभोजन कराकर अनुवासन के योग्य रोगी के आयु, बल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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