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________________ (१४४) कल्याणकारके अबमर्श [ प्रतिमर्श ] नाम से दो भेद है । और रूक्ष औषधियोंद्वारा किये जानेवाले नस्यके अवपीडन, प्रधमन इस प्रकार दो भेद हैं । चकि विरेचन बृहण आदि जो नस्य के भेद हैं वे सभी उपरोक्त स्नेह व रूक्ष पदाथों द्वारा ही होते हैं इसलिये [मुख्यतः ] सम्पूर्ण नस्यों के भेद चार हैं । वात, पित्त या वातपित्तोंसे उत्पन्न शिरों रोगी में, अवमर्ष नस्य को उपयोग में लाना चाहिये ॥ ६८॥ अवमर्ष नस्य। यद्यन्नस्यं तत्त्रिवारं प्रयोज्यं । यावद्द्वकां प्राप्नुयात्स्नेहबिंदुः ।। तं चाप्याहुश्चावमर्ष विधिज्ञाः। रूक्षद्रव्येयेत्तदत्र द्विधा स्यात् ॥ ६९ ॥ भावार्थ:-सर्वत्रा नस्यको त्रिवार प्रयोग करना चाहिये । जब वह नस्यगत स्नेहबिंदु मुखमें आजावे उसे अवमर्ष नस्य कहते हैं। इसकी मात्रा दो बिंदु है। रूक्षद्रव्यगत नस्थ उपर्युक्ल प्रकार दो तरह का है ॥ ३९॥ अवपीडन नस्य। व्याध्यावपीडनमिति प्रवदंति नस्यं । श्लष्मानिले परिचनागरपिप्पलीनाम् ॥ कोशातकी मरिचशिग्नपमार्गबीज-। सिंधूत्थचूर्णमुदकेन शिरोविरेकम् ।। ७० ।। भावार्थ:-लष्मवात रोगमें मिरच, सोंठ, पीपलके अवपोडन नस्यको देना चाहिये । एवं कडुवातुरई, मिरच, सैंजन, अपामार्ग के बीज व सैंधानमक के चूर्ण को पानीमें पीसकर शिरोविरेचनार्थ प्रयुक्त करना चाहिये । ॥ ७० ॥ मुत्र के लिये अपात जस्येत्वेते वजेनीया मनुष्याः। स्नातास्नातुं प्रार्थयन्मुक्तवंताः ।। अपक्षीणा गर्भिणी रक्तपित्ताः। श्वासैस्सद्यः पीनसेनाभिभूताः ॥ ७१ ॥ .:. १ रूक्ष औषिधेियोंके कल्क क्वाथ स्वरस आदिसे जो नस्य दिया जाता है उसे अवपीडन नस्य कहते हैं। लाहले चुग को नळीमें भरकर, नासा रंध्रमें फूका जाता है उसे प्रधर्मनं नस्य कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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