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________________ पित्तरोगाधिकारः। (१५१) 'यदि यह प्रकुपित पित्त सर्वांग में प्राप्त हो तो सम्पूर्ण शरीर में दाह, प्यास, ज्वर, भ्रम, मद, रक्तपित्त, अतिसार, आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं ॥ ३ ॥ पित्तप्रकोण का लक्षण। आरक्तलोचन मुग्धः कटुवाक्प्रचण्डः । शीतप्रियो मधुरभृष्टरसानसेवी ॥ पीतावभासुरवाः पुरुषोऽतिरांपी। पित्ताधिको भवति वित्तपतेः समानः ॥ ४॥ भावार्थ:-पित्तोद्रेकीका मुम्ब व नेत्र लाल २ होते हैं । कटुवचन बोलता है, उप्र दिखता है। उसे ठण्डी अधिक प्रिय रहती है । मधुर व स्वादिष्ट आहारोंको भोजन करनेकी उसे इच्छा रहती है। शरीर पीले वर्णका होजाता है। वह श्रीमंत मनुष्य के समान अति क्रोधी हुआ करता है ॥ ४ ॥ पित्तोपशमनविधि। शीतं विधानमधिकृत्य तथा प्रयत्ना-। च्छीतान्नपानमतिशीतलवारिधारा-॥ पाताभिषेकहिमशीतगृहप्रवेशः। शीतानिलैश्शमयति स्थिरपित्तदाहः ॥ ५॥ भावार्थ:-पित्तोपशमन करने के लिये, मुख्यतया शीत क्रिया करनी चाहिये । इसलिये प्रयत्नपूर्वक शीत अन्नपानादिका सेवन, ठण्डे पानीकी धारा छोडना, स्नान, ठण्डी मकानमें रहना, डण्डे हवाको खाना इत्यादियोंसे पित्तका प्रबलजलन दूर हो जाती पित्तोपशमन का पाहा उपाय । तत्राभितोऽभिनवयौवनभूषणेन । संभूषिता मधुरवामसरप्रगल्भाः । कान्तातिकान्तकठिनात्मकुचैकभारैः । पाठीनलोचनशतप्रभवः कटाक्षः ॥ ६ ॥ स्निग्धैमनोहरतरैमधुराक्षराठ्य- । स्सम्भाषितैःशशिनिभाननपङ्कजैश्च ।। नीलोत्पलामनयनैनितास्तमाशु । संल्हादयेयुरतिशीतकरावमः ॥ ७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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