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________________ (१५०) कल्याणकारके अथ नवम परिच्छेदः पित्तरोगाधिकारः प्रतिज्ञा स्तुत्वा जिनंद्रमुपसहतसंवदोष । : दोपक्रमादखिलरोगविनाशतम् ।। पित्तामयप्रशमनं प्रशमाधिकानां । वक्ष्यामह गुरूजनानुमतोपदेशात् ॥ १॥ . भावार्थ:-संपूर्ण दोषोंसे रहित एवं दूसरोंके सम त रोगोंको नाश करने के लिये कारण ऐसे श्री जिनेंद्र भगवतको नमस्कार कर दोषोंके क्रमसे पित्तरोगके उपशमन विधि को प्रशम आदि गुण जिनमें अधिक पाया जाता है उन मनुष्यों के लिये गुरूपदेशानुसार प्रतिपादन करेंगे ॥ १ ॥ पित्तप्रकोपमें कारण व तज्जरोग । कट्वम्लरूक्षलवणोष्णविदाहिमद्य- । सेवारतस्य पुरुषस्य भवंति रोगाः ॥ पित्तोद्भवाः प्रकटमूर्छनदाहशोषः। विस्फोटनमलपनातितृलाप्रकाराः ॥ २॥ . भावार्थ:-कटु ( चरपरा ) खट्टा, रूखा; नमकीन, उष्ण व विदाहि आहारों को और मद्यको अत्यधिक सेवन करते रहनेस, पित्त प्रकुपित होता है। इस से र्जा, [ वेहोश ] दाह [ जलन ] शोष ( सूखना ) विस्फोट ( फफोला ) प्रलाप तृषा आदि रोगों की उत्पत्ति होती है ॥ २ ॥ पित्तका लक्षण व त-अन्य रोग! पित्तं विदाहि कटुतिक्तरस सुतीक्ष्णं । या स्थितं दहति तन करोति रोगान् ।।.. सोगगं सकलदेहपरीतदाह- ।. तृष्णाज्वरनममदासमहातिसारान् ॥३॥ भावार्थ:-विदहि, कटु, तिक्तरस और तक्ष्णि, ये पित्त का लक्षण है। वह यह प्रकुपित्त होकर रहता है उस स्थान का जलाते हुए वहीं रोगों को पैदा करता है! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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