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वातरोगाधिकारः ।
(१५७)
स्तन्येय दाडिमरसो निचुलस्य वापि ।
घ्राणागतं घृतमथापि च पूर्वमुक्तं ॥ २३ ॥ भावार्थ:-दूब, नेत्रवाल, गिलोय इनके रस और दूधसे पकाये हुए घृतका अथवा दाडिमका रस, हिजलवृक्ष, व उतका रस व स्तन्य दूधसे पकाये हुए घृतका अथवा पूर्वकथित घृतों के नस्य देखें तो रक्तपित्त शीत्र ही नाश होता है ॥ २३ ॥
ऊधिःप्रवृतरक्तपिसकी चिकित्सा । उर्ध्व विरंचनमयैर्वमनौषधेश्च । तीवात्रपित्तमिहसाव्यमधःप्रयातम् ।। शीतैः सुसंशमनभेषजसंप्रयोगः ।
रक्तं जयेयुगपर्ध्वमधःप्रवृत्तम् ।। २४ ॥ भावार्थ--रक्तपित्त उर्ध्वगत हो तो विरेचनसे व अधोगत हो तो वमनसे साध्य करना चाहिये । अध और ऊर्ध्व एक साथ स्राव होने लगे तो शीतगुणयुक्त शामक प्रयोगोंसे उसका उपशम करना चाहिये ॥ २४ ॥
रक्तपित्तनाशकवस्तिक्षीर। आस्थापनं च महिषीपयसा विधय-। माज्येन सम्यगनुवासनमत्र कुर्यात् ।। नीलोत्पलांबुजसकेसरचूर्णयुक्तं ।
क्षीरं पिवेच्छिशिरमिक्षुरसेन सार्धम् ॥ २५ ॥ भावार्थ:-इस रक्तपित्तमें भैसके दृबसे आस्थापनवस्ति व घृतसे अनुवासन बस्ति देनी चाहिये । नीलकमल, कमल, नागकेसर इनके चूर्ण को ठण्डा दूध, और ईखके रस के साय पीना चाहिये ।। २५ ।।
रलपिसीको पथ्य और अंत शिविरमियरसाग्नपानं । पितामये विदधील सतीलयुपः ।। मुहानगुडप्रमुदितान्दषिमाहिषं वा!
मत्स्याक्षिशाकमवा पतमेधनादम् ॥२६॥ भावार्थ:---इस प्रकारके पित्तरोगोंके उपशमन के लिये धी, दूध इक्षुरस, मटर; व मूंग का दाल गुडविकार ( गुडसे बने हुए पदार्थ ) माहिषदधि, मछेछीका शाक, और मेघनादवृत आदि व्ण्डे अन्नपान का सेवन करना चाहिये ।।२६॥
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