________________
( १५६ )
कल्याणकारके
यष्ठ्याहकल्कगुड प्राहिपदुग्धमिश्रं । dharaपित्तमचिरेण पुमान्निर्हति ॥ २० ॥
भावार्थ:- कास, ईख, केवटी मोथा, ( कैवर्तमुस्त) चमेली इनके रस में मुलैठीका कल्क, गुड ( पुराना ) और भैसका दूध मिलाकर ठण्डे पानीले स्नानकर गीली बोती पहने हुए ही पीनेसे रक्तपित रोग शीत्र नाश होता है ॥२०॥
मधुकादित
पकं घृतं मधुचंदनसारिवाणां । काथेन दुग्धसदृशेन चतुर्गुणेन || त्यस्रपित्तमचिरेण सशर्करेण ।
काकोलिकाप्रभृतिमष्टगुणान्वितेन ॥ २१ ॥
भावार्थ:-- मुलैठी, लालचंदन, अनंतमूल इनके चतुर्गुण काथ, चतुर्गुण गोदुग्ध व शक्कर और काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि इन आठों द्रव्यों के कल्क के द्वारा सिद्ध किये गये घृतको सेवन करने से रक्तपित्त शीघ्र ही नाश होता है || २१ ॥
Jain Education International
atrugate विकित्सा
संतर्पणं शिरसि जीर्णघृतैर्धृतैर्वा । क्षीरद्रुमांबुनिचुलार्जुनतोय वकैः ॥ प्राणमत्तरुधिरं शमयत्यशेषं ।
aritraरिपयसा परिषेचनं वा ॥ २२ ॥
भावार्थ:-- मस्तक में पुराना घी मलने एवं पंचक्षीरीवृक्ष, ( वड, गूलर, पीपल पाखर, शिरीष ) नेत्रवाला वेत अर्जुनवृक्ष इनके कषायसे पकाये हुए घीको मस्तकमें मनसे यदि नाकसे रक्तपित्त बहरहा हो तो उपाशनको प्राप्त होता है, अथवा वेर का काय आदि की या दूकी बार देनी चाहिये। यह भी हितकर है ।। २२ ।
वृत्त रक्कमें प्रयोग |
जस्येन नाशयति शोणितमाशु सर्वे । दुर्वामृतयः पयसा विपर्क ||
१ कोई शिरीष के स्थान में वेंत, कोई पपिल का भेदभूत वृक्षविशेष मानते हैं जैसे किन्यग्रोधोदुम्बराश्वस्थ पारीषलक्षपादपाः । पंचते सीरिणो वृक्षाः । केचित्तु पारीव स्थाने "शिरीष तल पर
दबाए।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org