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पित्तरोगाधिकारः
स्रोतावरीधनमिहापिरुगक्षिपात | छर्दिमसेकधवलाक्षिमलाननत्वम् ॥ ५७ ॥
अत्यंग सादनविपाविहीनताति- । 'कासातिपीनसकफी हमकण्डकण्डूः ॥ इलेष्मज्वरे प्रकटितानि च लक्षणानि । सर्वाणि सर्वमहाज्वरसंभवानि ।। ५८ ।।
भावार्थ:- निद्राधिकता, अरुचि, अधिक शिर भारी होजाना, शरीर कम गरम रहना, मुखमें मिठास रहना, रोमांच होना, स्रोतोंका मार्ग रुक जाना, अल्प पीडा, ) आंख गल व मुख का वर्ण सफेद होजाना, जुखाम, कफ आता व कंठ खुजलाना, ये सब उपर्युक्त वातपित्तकफज्वरके तीनों प्रकार के सन्निपातज्वर समझना चाहिये ॥ ५७ ॥ ५८ ॥
द्वंद्वजज्वर लक्षण |
दोषद्वयेरितसुलक्षणलक्षितं त- । दोषद्वयोद्भवमिति ज्वरमाहुरत्र ॥ दोषप्रकोपशमनादिह शीतदाहा- ।
वाद्यं तयोर्विनिमयेन भविष्यतस्तौ ॥ ५९ ॥
भावार्थ:- जिसमें दो दोषोंके ( बात पित्त, वातकफ, या पित्तकफ ) लक्षण प्रकट होते हैं उसे द्वंद्वज ज्वर समझना चाहिये । ज्वर के आदि और अन्य में, दोषोंके प्रकोप व उपशमन के अनुसार शीत, अथवा दाह परिवर्तन से होते हैं । अर्थात् यदि ज्वर आदि से वातप्रकोप हो तो ठण्डी लगती है, पित्तोद्रेक हो तो दाह कम होता है । यही क्रम ज्वर के अंत में भी जानना चाहिए ॥ ५९ ॥
आंख में स्तब्धता, वमन ( थूक आदि अत्यंत शरीरग्लानि, अपचन, खांसी, श्लेष्मज्वर में पाये जाने वाले लक्षण हैं। लक्षण एकत्र पाये जाये तो उसे
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धन
सन्निपात ज्वरका असाध्य लक्षण | सर्वज्वरेषु कथिताखिललक्षणं तं । सर्वरुपद्रवरपि संप्रयुक्तम् ॥ हीनस्वरं विकृतलोचनमुच्छ्रतं । भूमौ प्रलापसहितं सततं पतन्तम् ।। ६० ।। यस्ताम्यति स्वपिति शीतलगात्रयष्टि- 1 रंतर्विदाहसहितः स्मरणादपेतः ॥
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