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( १६८ )
कल्याणकारके
रक्तेक्षणो हृषितरोमचयस्सशूल - । स्तं वर्जयेद्भिषगिहज्वरलक्षणः ॥ ६१ ॥
भावार्थ:- जिस में सन्निपात के पूर्णलक्षण जो वातादि स्वरों में पृथक् २ लक्षण बतलाये हैं वे एक साथ प्रकट होवे यही सन्निपात ज्वर का लक्षण है । इन त्रिदोषोंके संपूर्ण लक्षण एक साथ प्रकट हो, संपूर्ण उपद्रवोंसे संयुक्त हो, स्वर ( अवाज कम होगया हो, नेत्र विकृत होगये हो, ऊर्ध्व श्वाससे पीडित हो, बडबड करके भूमिपर सदा गिरता हो, संताप से युक्त हो, दीर्घनिद्रा लेता हो, जिसका शरीर ठंडा पडगया हो, अंदर से अत्यधिक दाह होरहा हो, जिसकी स्मृतिशक्ति नष्ट होगई हो, आंखे लाल होगई हो, रोमांच होगया हो, शूल सहित हो, ऐसे सान्निपातिक रोगीको ज्वरलक्षण जाननेवाला विद्वान् वैद्य असाध्य समझकर अवश्य छोडें ॥। ६०-६१ ॥
सन्निपातज्वर के उपद्रव | मृच्छागरुक्क्षयतृषावमथुज्वरार्ति - । श्वासैस्सशू. मलमूत्रनिरोधदाहैः ॥ हिक्कातिसारगलशोषणशोफकासै- । रेतैरुपद्रवणैस्सहिताश्च वर्ज्याः ॥ ६२ ॥
तीन
प्यास,
भावार्थ: – बेहोश अंगों में पीडा होना, धातुदाय, चमन, श्वास, शूल, मलमूत्रावरोध, दाह, हिचकी, अतिसार [ दस्त लगना ] कंठ शोष, सूजन, खांसी ये सब सन्निपात ज्वर के उपद्रव हैं । इन उपद्रवोंके समूहस युक्त ज्वरको वैद्य असाध्य समझकर छोड़ दें ॥ ६२ ॥
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ज्वरकी पूर्वरूप में चिकित्सा | रूपेषु पूर्वजनितेषु सुखोष्णतोय- । वfतः पिबेन्निशितशोधनसर्पिरेव ॥ संशुद्धदेहमिति न ज्वरति ज्वरोऽयं व्यक्तज्वरे भवति लंघनेमव कार्यम् || ६३ ॥
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भावार्थ::- ज्वर के पूर्वरूप प्रकट होनपर मंदोष्ण पानीसे वमन कराना चाहिये । एवं तीक्ष्ण विरेचन घृतको पिलाकर विरेचन कराना चाहिये, इस प्रकार शोधित शरीरवालेको ज्वर बाधा नहीं पहुंचाता है अर्थात् बुखार आता ही नहीं । ज्वर प्रकट होनेपर लंघन करना ही उचित है ॥ ६३ ॥
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