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पित्तरोगाधिकारः
घन व जलपान विधि |
आनद्धदोषमखिलं स्तिमितयष्टि-1 मालोक्य धनविधिं वितरेतृषार्त्त ॥ तोयं पिवेत्कफमरूज्ज्नरपीडितांगः | सोष्णं सपित्तसहितः श्रुतशीतलं तु ॥ ६४ ॥
भावार्थ:- दोषोंके विशेष उद्रेक व स्तव्य शरीर को देखकर लंघन कराना चाहिये । यदि प्यास लगे तो वातकफज्वरी गरम पानी व पित्तज्वरी गरम करके ठण्डा किय हुआ पानीको पीना उचित है ॥ ६४ ॥
क्षुत्पीडित यदि भवेन्मनुजो यवागूं । पीत्वा ज्वरप्रशमनं प्रतिसंविशेदा । तद्वद्विप्यमपि युगणैः कटुणैः ॥ संयोजयेज्ज्वरविकार निराकरिष्णुः ।। ६५ ।
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भावार्थ:- लंबित रोगीको यदि भूक लगे तो क्रमसे धरनाशक दोष्ण यवागू बिपी व यूषों को देना चाहिये, फिर विश्रांती देनी चाहिये ॥ ६५ ॥
वातपित्तज्वर में पाचन | बिल्वानिमंथबृहतीइयपाटलीनां । कार्य पिवेदशिशिरं पवनज्वतिः ॥ काशेक्षुयषिधुचंदनसारिवानां ।
शीतं कषायमिह पित्तविकारनिघ्नम् || ६६ ॥
भावार्थ:- बेल, अगेथु, दोनों कटेली, पाढ, इनका सुखोष्ण काथ बातावरीको पाचनार्थ पीना उचित है । काश, ईखका जड, मुलेठी, चंदन, सारित्र इनका ठण्डा काथ पाचन के लिये पित्तन्त्रको देना चाहिये ॥ ६६ ॥
कफज्वर में पाचन व पकउपलक्षण ।
इत्रिकपकतोय- !
भाफलञनकडुनिक मुष्णं पिवेत्कफकृतज्वरपाचनार्थम् ॥
१ यदि दोषोद्रेक आदि अधिक नहीं, उबर भी साधारण हो तो लंबन कराने की जरूरत नहीं | लघु आहार दे सकते हैं | दूसरा यह भी तात्पर्य है जब तक दोषद्रिक अंगोंमें स्तब्धता आदि अधिक हो तब तक लंघन कराना चाहिये ।
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