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विषरोगाधिकारः।
(५०५)
साँगाभिहतलक्षण. भीरुकस्य मनुजस्य कदाचिज्जायते श्वयथुरप्यहिदेह-। स्पर्शनात्तदभिघातनिमित्तात् क्षोभितानिलकृतो विविषोऽयम् ॥ ८६ ॥
भावार्थ:-जो मनुष्य अत्यंत डरपोक हो उसे कदाचित् सर्प के शरीर के स्पर्शसे [ उसी के घबराहट से ] कुछ चोट भी लग जाय तो इस भय के कारण से [ या उसे यह भ्रम हो जायें कि मुझे सर्प डसा है ] शरीर में वात प्रकुपित होकर सूजन उत्पन्न हो जाती है उसे सपांगाभिहत कहते हैं। यह निविष होता है ॥ ८६ ॥
दीकर सर्पलक्षण. छत्रलांगलशशांकसुचक्रस्वस्तिकांकशधराः फणिनस्ते । यांति शीघ्रमचिरात्कुपिता दर्वीकराः सपवनाः प्रभवंति ॥ ८७ ॥
भावार्थ:-जिन के शिरपर छत्रा, हल, चंद्र, चक्र (पहिये) स्वस्तिक व अंकुश का चिन्ह हो, फण हो, जो शीघ्र चलनेवाले व शीघ्र कुपित होते हों, जिन के शरीर व विष में वात का आधिक्य हो उन्हे दवकिर सर्प कहते हैं ॥ ८७ ॥
मंडलसर्पलक्षण. मण्डलैबहुविधैर्बहुवर्णैश्चित्रिता इव विभांत्यतिदीर्घाः । मंदगामिन इहाग्निविषायाः संभवंति भुवि मण्डलिनस्ते ॥ ८८॥
भावार्थ:-अनेक प्रकार के वर्ण के मंडलों ( चकत्तों ) से जिनका शरीर चित्रित के सदृश मालूम होता हो एवं धीरे २ चलने वाले हों, अत्यंत उष्णविषसे संयुक्त हों, अत्यधिक लम्बे [ व मोठे ] हों ऐसे सर्प जो भूमि में होते हैं उन्हे मंडलीसर्प कहते हैं ॥ ८८ ॥
राजीमंतसपलक्षण. चित्रिता इव सुचित्रविराजीराजिता निजरुचे स्फुरितामा। वारुणाः कफकृता बरराजीमंत इत्यभिहिताः भुवि सर्पाः ।। ८९॥
भावार्थ:-जो चित्रविचित्र (रंगबिरंगे) तिरछी, साधी, रेखावों [ लकीरों ] से चित्रित से प्रतीत होते हों, जिनका शरीर चमकता हो, कोई २ लालवर्णवाले हों जिनके शरीर व विषमें कफकी अधिकता हो उन्हे राजीमंत सर्प कहते हैं ।। ८९ ॥
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