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(५०४)
कल्याणकारके
। त्रिविधदंश व स्वार्तलक्षण. दंशमत्र फणिनां त्रिविधं स्यात् स्वर्पितं रदितमुद्विहितं च । स्वर्पितं सविषदंतपदैरकद्विकत्रिकचतुभिरिह स्यात् ॥ ८२ ।। तन्निमग्नदशनक्षतयुक्तं शोफवद्विषमतीव्रविषं स्यात् ।। तद्विषं विषहरैरतिशीघ्रं नाशयेदशनकल्पमशेषम् ॥ ८३ ॥
भावार्थ:-- सोका दंश तीन प्रकार का होता है । एक स्वर्पित, दूसरा रचित व तीसरा उद्विहित । सर्प जब अपभे एक, दो, तीन या चार विषैले दांतों को लगाकर काट खाता है उसे स्वर्पित कहते हैं । वह दांतोंकी घाव से युक्त वेदना शोफ के समान ही अत्यंत तंत्र विषयुक्त होती है । उसे विषनाशक क्रियाको जाननेवाले वैद्य शीघ्र दूर करें । दान्तों के बावको भी दूर करें ॥ ८२ ॥ ८३ ॥
' रचित [ रदित ] लक्षणः लोहितासितसितातिराजीराजितं श्वयथुमञ्च यदन्यत् । बद्भवेद्रचितमल्पविषं ज्ञात्वा नरं विविषमाश्विह कुर्यात् ॥ ८४ ॥
भावार्थ:-जो दंश लाल, काले व सफेद वर्ण युक्त लकीर [ रेखा ] से युक्त हो (जखम न हो) साथ में शोथ ( सूजन ) भी हो उसे राचित ( रदित ) नामक सर्प दंश समझना चाहिये। वह अल्पविष से युक्त होता है। उसे जानकर शीघ्र उस विष को दूर करना चाहिये ॥ ८४ ॥
उद्विहित (निर्षिष ) लक्षण. स्वस्थ एव मनुजोप्यहिदष्टः स्वच्छशोणितयुतक्षतयुक्तः। यत्क्षतं श्वयथुना परिहीनं निर्विषं भवति तद्विहिताख्यम् ॥ ८५ ॥
भावार्थ:-सर्पसे डसा हुआं मनुष्य स्वस्थ ही हो [शरीर वचन आदि में किसी प्रकार की विकृति. न आई हो ] उस का रक्त भी दूषित न हो, कटा हुआ स्थानपर जखम ( दांतों के चिन्ह ) मालूम हो, लेकिन उस जगहमें सूजन न हो ऐसे सर्पदंश [सर्प का काटना ] दांतों के चिन्हों (क्षत )से युक्त होते हुए भी निर्विष होता है। उसे उद्विहित (निर्विष ) कहते हैं ।। ८५ ॥
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