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________________ विषरोगाधिकारः । ( ५०३ ) :-- अनेक प्रकार के मंडल ( लकीर ) रहती हैं भावार्थ: - उन जंगम विषो में सर्पजाति का विष अत्यंत भयंकर होता है । वह सर्प दवकर, मंडली, राजीमंत, वैकरंज, निर्विष, इस प्रकार पांच भेद से विभक्त है । जो फणवाले सर्प हैं उन्हे दवकर कहते हैं । जिस के शरीर पर [ चकत्ते ] होते हैं वे मंडलीसर्प कहलाते हैं । जिनपर रेखायें वेराजीमंत कहलाते हैं । अन्यजाति की सर्पिणी से किसी संयोग से जो उत्पन्न होता है उसे वैकरंज कहते हैं । संयुक्त है पांनी व पानीके समय ( वर्षात् ) में उत्पन्न होते 'शरीर का वर्ण तोते के समान हरा व चंद्रमा के समान सफेद है जाति के सर्प के जो विष राहत व न्यूनविष हैं या रहते हैं, * जिनके ऐसे सर्प व अजगर ( जो अत्यधिक लम्बा चौडा होता है मनुष्य आदिकोंको निगल जाता हैं ) आदि सर्प निर्विष कहलाते हैं ॥ ७७ ॥ ७८ ॥ सर्पविषचिकित्सा. दृष्टिनिश्वसिततीविषाणां तत्प्रसाधनकरौषधवगैः । का कथा विषमतीक्ष्णदंष्ट्राभिर्दशंति मनुजातुरगा ये ॥ ७९ ॥ तेषु दशविषवेगविशेषात्मीयदोष कृतलक्षणलक्ष्यान् । सच्चिकित्सितमिह विधास्ये साध्यसाध्यविधिना प्रतिबद्धम् ॥ ८० ॥ अन्य से - भावार्थ:- दृष्टिविष व निश्वास विश्वाले दिव्यसर्पों के विषशमनकारक औषधियों के सम्बध में क्या चर्चा की जाय ! ( अर्थात् उनके विषशमन करनेवाले कोई औषध नहीं हैं और ऐसे सर्पों के प्रकोप उसी हालत में होती है जब अधर्म की पराकाष्टा अदिस दुनिया में भयंकर आपत्तिका सान्निध्य हो ) जो भौमसर्प अपने विषम व तक्ष्ण डढों से मनुष्यों को काट खाते हैं, उस से उत्पन्न विषवेग का स्वरूप विकृत दोषजन्य लक्षण, "उसके [ विषके ] योग्य चिकित्सा, व साध्यासाध्यविचार, इन सब बातों को आगेवर्णन करेंगे ।। ७९ ।। ८० ।। सर्पदंश के कारण. -पुत्ररक्षणपरा मदमत्ता ग्रासलोभवशतः पदघातात् । स्पर्शतोऽपि भयतोऽपि च सर्पास्ते दर्शति बहुधाधिकरोत् ॥ ८१ ॥ भावार्थ:- वे सर्प अपने पुत्रोंके रक्षण करनेकी इच्छासे, मदोन्मत्त होकर, आहार के लोभ से [ अथवा काटने की इच्छासे ] अधिक धक्का लगने से, स्पर्शसे, क्रोक्से, प्रायः मनुष्यों को काटते ( डसते ) हैं ॥ ८१ ॥ १ भयभीतविसर्पा इति पाठांतरं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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