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________________ (५७६) कल्याणकारक तस्यांग परिरूक्ष्य यत्र च रुजा मृगोमयैश्चूर्णितः । पिष्टैर्वातिहिमांबुधौ तमसकृत् पश्चाज्जलूका अपि ॥ ४५ ॥ वाम्या सद्रजनीसुसर्षपवचाकल्केः क्रमासांबुभिः । धौताः शुद्धजलश्च मुद्गकृतकल्कांबुप्रतिक्रीडिताः ॥ पश्चादासुसूक्ष्मवस्त्रशकलेनागृह्य संग्राहये- । द्रोगास्तन्नवनीतलपितपदे शस्त्रक्षते वा पुनः ॥ ४६॥ भावार्थ:--जो रोगी रक्तमोक्षण सं साध्य होनेवाले विविधरोगसे पीडित हो उसे अच्छी तरह देखकर शांतकाल [ हिमवत व शरदऋतु ] में शीतगुणयुक्त आहार को खिलाकर बैठाल देवें । जहां से रक्त निकालना हो उस जगह में यदि व्रण न हो तो, मिट्टी व गोबर के चूर्ण, अथवा किसी रूक्ष पिठीसे, उस स्थान को रगडकर रूक्षण (खरदरा ) करके ठंडे पानी से बार २ धावें। उन जोंकों के मुख में हलदी, बच, इनके कल्क लगाकर, वमन कराकर पानी से अच्छी तरह धांवें। पश्चात् एक बर्तन में, जिस में मूंगकी पिठीसे मिला हुआ शुद्ध पानी भरा हो, उसमें क्रीडनार्थ छोड देवें । जब वे फुर्ती के साथ इधर उधर दौडने लगे तो उन के श्रम दूर होगया है ऐसा जानकर, उन्हें गीले बारीक कपडे के टुकडे से पकडकर, रोगयुक्त स्थान को पकडया देवें। यदि वे न पकडे तो उस स्थानमें मवखन लगाकर, अथवा किसी शस्त्र से क्षतकर पुनः पकडवा देवें ॥ ४५ ॥ ४६॥.. रक्तचूसन के बाद करने की क्रिया विस्रावैर्विहरंदसक्सदहनैः तुंबीफलैः सद्विषा- । णैर्वा चूषणको विदावरजलूका स्यात्स्वयंग्राहिका ॥ पीत्वा तां पतितां च शोणितमतः संकुंडिकना[?]शुसं-1 लिशं सैंधवललेपितमुखीमापीडयेद्वामयेत् ॥४७॥ . . भावार्थ:---दुष्ट रक्त को, अग्नियुक्त तुम्बीफल व श्रृंग से निकालना चाहिये। रक्त को चूसने में समर्थ जोंक को लगाने से वे स्वयं रक्त को चूस लेत हैं [ इन को लगाकर भी रक्त स्रावण करना चाहिये ]। जब वे खून पीकर, नीचे गिर जाते हैं, तब उनके शरीरको चावल के चूर्ण से, लेपन करें और सेंधानमक व तैल को मिलाकर, उन के मुख में लगाकर, पूंछ की तरफ से मुख को ओर धीरे २ दबाते हुए वमन करावें ॥ ४७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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