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( ४८ )
कल्याणकारके
अथ चतुर्थः परिच्छेदः ।
॥ कालस्य क्रमबंधनानुपर्यंतम् ॥ ( शार्दूलविक्रीडित ) मंगलाचरण और प्रतिज्ञा
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यो वा वेत्यखिलं त्रिकालचरितं त्रैलोक्यगर्भस्थितं । द्रव्यं पर्ययवत्स्वभावसहितं चान्यैरनास्वादितम् । नत्वा तं परमेश्वरं जितरिपुं देवाधिदेवं जिनम् । वक्ष्याम्यादरतः क्रमागतमिदं कालक्रमं सूत्रतः ॥ १ ॥
भावार्थः – जो परमेश्वर जिनेंद्र भगवान् तीनलोकसंबंधी भूतभविष्यद्वर्तमान
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कालवर्ती द्रव्यपर्यायके समस्त विषयोंको युगपत् प्रत्यक्षरूपसे जानते हैं जो कि अन्य हरि रादि देवों के द्वारा कदापि जानना शक्य नहीं है, जिन्होने ज्ञानावरणादि कर्म रूपी शत्रु वको जीता है ऐसे देवाधिदेव भगवान् जिनेंद्रको नमस्कारकर इस समय क्रमप्राप्त कालभेदका वर्णन आगमानुसार यहां हम करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा श्री आचार्य करते हैं ।। १ ॥
कालवर्णन
कालोऽयं परमोऽनिवार्यबलवान् भूतानुसंकालनात् । संख्यानादगुरुर्नचा तिलघुरप्याद्यंतहीनो महान् । अन्योऽनन्यतरोऽव्यतिक्रमगतिः सूक्ष्मो ऽविभागी पुनः । सोऽयं स्यात्समयोऽप्यमूर्तगुणवानावर्तनालक्षणः ॥ २ ॥ भावार्थ:-संसार में काल बडा बलवान् है एवं अनिवार्य है । संसार में कोई भी प्राणियोंको यह छोड़ता नही है । यह अनंत समयवाला है । अगुरुलघु गुणसे युक्त होने के कारण उसमें न्यून वा अधिक नही होता है । और अनाद्यनंत है । महान् है । द्रव्यलक्षणकी दृष्टिसे अन्य द्रव्योंसे वह भिन्न है । द्रव्यत्वसामान्यकी अपेक्षा से भिन्न नहीं है । अथवा लोकाकाशमें सर्वत्र उसका अस्तित्व होनेसे अन्यद्रव्योंसे भिन्न नहीं है । सिलसिलेवार क्रमसे चक्र के समान जिसकी गति है, जो सूक्ष्म है अविभागी है और अमूर्त गुणवाला है एवं वर्तना ( आवर्तना ) लक्षणसे युक्त है अर्थात् सर्व द्रव्योंमें प्रतिसमय होनेवाला सूक्ष्म अंतनत पर्याय परिवर्तन के लिये जो कारण है । इस प्रकार काल संसारमें एक आवश्यकीय व अनिवार्य द्रव्य है ॥ २ ॥
१ – इस श्लोक में परमार्थ कालका वर्णन है । २ – जिसकी गति अविच्छिन है ।
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