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________________ ( -२३८) 'कल्याणकारके हो पीडा रहित हो, अंगोपांग सूख गये हों, ऐसे पक्षाघात रोगी को असाध्य समझकर : छोडना चाहिए ॥ ३३ ॥ आक्षेपकअपतानक चिकित्सा | स्नेहनानुपकृतातुरमोक्ष- । पापतानकृनिपीडितगात्रम् ॥ शोधयेच्छिरसि शोधनवगैः । पाययेद्धृतमनंतरमच्छम् ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-- आक्षेपक अपतानकसे पीडित रोगी को स्नेहन स्वेदन आदि क्रियाक प्रयोगकर [ शिरोविरेचन ] शिरशोधनवर्ग की औषधियोंसे शिरशोधन करना चाहिए | तदनंतर स्वच्छ घृतको पिलाना चाहिए ॥ ३४ ॥ वातहर तैल | ख्यातवातहर भेषजकल्क- । क्वाथकोलयवतोयकुलुत्थी - || त्पन्नयुषदधिदुग्धफलाम्लै । स्तैलमाज्यसहितं परिपक्वम् ||३५|| भावार्थ:- वातको नाश करनेवाली औषधियोंसे बनाया हुआ कल्क व काय चैर' व 'यत्रका पानी, कुलथी का यूप, दही, दूध अम्लफल और घी इनसे तेल सिद्ध 'करना जाहिये || ३५ ॥ वातहर तेल का उपयोग | नस्यतर्पणीशरः परिषेका- स्यंगवस्तिषु विधेयमिहाक्षे- । पापतानकमहानिलरोगे - ध्वष्टवर्गसहितं मिथुनाख्यम् ||३६|| भावार्थ:- उपरोक्त तेल को, अपतानक महावात रोगों में नस्य, सिर का 'तर्पण, परिषेक, अभ्यंग, और बस्तिक्रिया में उपयोग करना चाहिये । एवं जीवक 'ऋषभक, काकोली क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि इन अष्टवर्ग से सिद्ध किये हुए मिथुन नामक तैल को उपरोक्त कार्यों में उपयोग करना चाहिये || ३६ ॥ आर्दित वात चिकित्सा | स्वेदयेदसदर्दितवतं । स्वेदनविधैर्वहुधोक्तः । अर्कतैलमपतानकपत्रा - | म्लाधिकं दधि च पीतमभुक्त्वा ॥ ३७॥ भावार्थ:- अर्दित वातरोग में भोजन न खिलाकर, अम्लरस वा दही को पिलाये पश्चात् अनेक बार कहे गये, नाना प्रकार के स्वेदन विवियों द्वारा वार २ स्वेदन करें । आकके तैल का मालिश करें ।। ३७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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