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महामयाधिकारः ।
शुद्ध व मिश्रवात चिकित्सा !
शुद्ध वातहितमेतदशेषं । मिश्रितेष्वपि च मिश्रितमिष्टम् ॥ दोषभेदरसभेदविधिज्ञो । योजयेत्प्रतिविधानविशेषैः ॥ ३८ ॥
भावार्थ:- ऊपर अभीतक जो वातरोग की चिकित्सा का वर्णन किया है, वे सम्पूर्ण शुद्धवादार अर्थात् केवल बातसे उत्पन्न रोगों में हितकर हैं । अन्यदोषों से मिश्रित ( युक्त ) वातरोगों के लिये भी रसभेद, दोषभेद, व तत्तद्रोगों के प्रतीकार विधान को जाननेवाला वैद्य, तत्तद्दोषों के प्रतिकूल, ऐसी मिश्रित चिकित्सा करें पक्षावात अर्दितवात चिकित्सा ।
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३८ ॥
पक्षघातमपि साधु विशोध्या - । स्थापनाद्यखिलरोगचिकित्सा | संविधाय विदितार्दितसंज्ञम् । स्वेदनैरुपचरेदवपीडैः ॥ ३९ ॥
( २३९)
भावार्थ:- पक्षाघात रोगीको अच्छीतरह विरेचन कराकर, आस्थापनाबस्ति आदि वातरोगों के लिये कथित, सम्पूर्ण चिकित्सा करनी चाहिये । अर्दित वातरोगी को स्वेदन व अवपीडननस्य आदि से उपचार करना चाहिये ।। ३९ ।।
आदितवत के लिए कासादि तैल |
काशदर्भकुशपाटलीबल्व काथभागयुगले सुदुग्धम् ॥ तैलमर्धमखिलं परिपक्कं । सर्वथार्दितविनाशनमेतत् ॥ ४० ॥
भावार्थ:- कास तृण, दर्भा, कुश, पाढ, बेल इनके दो भाग काथ एक भाग दूध एवं उस से [ दूधसे ] आधा भाग तैल डालकर पकायें । इस तेल को नस्य आदि के द्वारा प्रयोग करें तो, आदितवात को विनाश करता है ॥ ४० ॥
गृनसी प्रभृतिवात रोग चिकित्सा |
सिप्रभृतिवातविकारा- । व्रक्तमोक्षणमहानिलरोग - ॥ प्रोक्तसर्वपरिकर्मविधानैः | साधयेदुरुतरौषधयोगैः ॥ ४१ ॥
भावार्थ:- गृसि आदि महावात विकार में रक्तमोक्षण करके पहिले कहे गये उत्तम औषधियों के प्रयोग से योग्य चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ४१ ॥
higaaraचिकित्सा |
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कोजानपि महानिलरोगान् । कुष्टपत्रलवणादिघृतै बस्तिभिर्विविधभेषजयोगेः । साधयेदनिलरोगविधिज्ञः ॥ ४२ ॥
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