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कल्याणकारके
भावार्थ:- कोष्टगत महावात रोगोंमे पत्र लवणादिक, वृत व वस्तिप्रयोग आदि अनेक प्रकारके प्रयोगों द्वारा संपूर्ण वात रोगोंकी विधीको जाननेवाला कुशल बैद्य चिकित्सा करें ॥ ४२ ॥
वातव्याधिका उपसंहार.
केवलोऽयमितरैस्सहयुक्तो । वात इत्युदितलक्षणमार्गीत् ॥ आकलय्य सकलं सविशेषै- । भेषजैरुपचरेद्नुरूपैः ॥ ४३ ॥
भावार्थ::- यह केवल वातज विकार है, यह अन्य दोषोंसे युक्त है । इन का पहिले कहे हुए वातादि दोषोंके लक्षणोंसे निश्चयकर उनके योग्य औषधियों से चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ४३ ॥
कर्णशूल चिकित्सा |
कर्णशूलमपि वहिंगु । चच्छृंगवेररसतैलसमेतैः ॥
पूरयेच्छ्रवणमाशु जयेत्तं । छागतोयलशुनार्कपयोभिः ॥ ४४ ॥
भावार्थ:-सैंधानमक, हींग, अदरख के रसको तेल में मिलाकर अथवा बकरेकी मूत, लहसन व अकौका रस इनको मिलाकर गरम करके कानमें भरें और उसको सौ पांच अथवा एक हजार मात्र समयतक धारण करावे तो कर्णशूल शांत होता है ।
अथ मूढगर्भाधिकारः । मूढगर्भकथनप्रतिज्ञा |
उक्तमेतदखिलामययोग्यं । सच्चिकिकित्सितमतः परमन्ये मृदगर्भगतिलक्षणरिष्ट- प्रोयदुद्धरणयुक्तकथेयम् ॥। ४५ ।।
भावार्थ:- अभीतक वात रोगों के लिये योग्य चिकित्साविशेषका प्रतिपादन किया है । अब मूढगर्भ के लक्षण, रिष्ट, व उद्धरणकी ( निकालने की ) विधि आदिको कहेंगे ।। ४५ ।।
गर्भपात का कारण |
वाहनाध्वगमनस्खलनाति । ग्राम्यधर्मपतनाद्यभिघातात् ॥
प्रच्युतः पतति विसृतगर्भ - | स्वाशयात्फलभियांत्रिपदात् ॥ ४६ ॥
१ घुटने चारों तरफ हाथसे एक चक्कर फिराकर चुटकी बजाये । इतने कालकी एक मात्रा होती है।
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