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शास्त्रसंग्रहाधिकारः।
(५३५)
भावार्थः-स्नेह पकाते २ जब तैल व उस में डाला हुआ औषध अलग २ [ तैल अलग, औषध अलग, तैल औषध घुले नहीं ] हो जाये इसे मृदुपाक कहते हैं। जिस कल्क में तैल का अंश बिलकुल न हो, लेकिन वह लिवलिवाहट से युक्त हो, ऐसे पाक को चिक्कण अर्थात् मध्यपाक कहते हैं । जिस कल्क की दोनों अंगुलियों से मर्दन [ मसलने ] करने पर शीघ्र ही गोल वा बत्तीसा बन जावे तो इस पाक को खरचिक्कण पाक कहते हैं, [ दग्ध पाक निर्गुण होता है ] ॥ २६ ॥
स्नेह आदिकों के सेवन का प्रमाण. स्नेहपरिप्रमाणं पोडशिकाकुडुवं द्रवस्य चूर्ण । विडालपादसदृशं वरकल्कमिहाक्षमात्रकं ॥
सेव्यमिदं वयोवलशरीरविकारविशेषतोतिही-। ... नाधिकतां वदंति बहुसंशमनौषधसंग्रहे नृणाम् ॥ २७॥ - भावार्थः-जो रोगशमनार्थ संशमन औषधप्रयोग किया जाता है, उस में स्नेह [ घृततल ] चूर्ण व कल्क के सेवन का प्रमाण एक २ तोला है । द्रव पदार्थ (काथादि ) का प्रमाण एक कुडब ( १६ तोला ) है । लेकिन रोगी के वय, शक्ति, शरीर, विकार रोग] की प्रबलता अप्रबलता, आदि के विशेषता से अर्थात् उस के अनुसार उक्त मात्रा से कमती या बढती भी सेवन करा सकते हैं । ऐसा संशमन औषध संग्रह में मनुष्यों के लिये आचार्यप्रवरोनें कहा है ॥ २७॥
- रसोंके त्रेसठ भेद.. . . .... .. एकवरदिकत्रिकचतुष्कसपंचषट्कभेदभं। गैरखिलै रसास्त्रिकयुताधिकषष्टिविकल्पकाल्पता ॥ तानधिगम्य दोषरसभेदविदुर्जिनपूर्वमध्यप-।।
वादपि कर्मनिर्मलगुणो भिषगत्र नियुज्य साधयेत् ॥ २८ ॥ . भावार्थ:- [अब रसों के त्रेसठ भेद कहते हैं ] एक २ रस, दो २ रसों के ? संयोग, तीन २ रसों के संयोग, चार २ रसों के संयोग, पांच २ रसों के संयोग व छहों रसों के संयोग से कुल रसोंके वेसठ भेद होते हैं। दोषभेद रसभेद, पूर्वकर्म .. मध्यकर्म व पश्चात्कर्म को जाननेवाला निर्मलगुणयुक्त वैद्य, रसभेदों को अच्छी तरह जान कर, उन्हें दोषों के अनुसार प्रयोग कर के, रोगों को साधन करें ।।
रसभेदों का खुलासा इस प्रकार हैं-एक २ रस की अपेक्षा छह भेद होते.....
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