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________________ (६४०) कल्याणकारके - शुक्र व आर्तव विकार की चिकित्सा. एतेषु पंचसु च शुक्रमयामयेषु स्नेहादिकं विधिमिहोत्तरबस्तियुक्तम् । कुर्यात्तथाविधिकारगणेषु चैव तच्छुद्धये विविधशोधनसत्कषायान् ॥१४॥ कल्कान् पिबेच तिलतैल युतान्यथावत् पथ्यान्यथाचमनधूपनलेपनानि । संशोधनानि विदधीत विधानमार्गाद्योन्यामथार्तवविकारविनाशकानि।।१५। भावार्थ:--- शुक्र के इन पांचो महान् रोगों को जीतने के लिये स्नेहन यमन विरेचन, निरूहबस्ति, व अनुवासन का प्रयोग करके उत्तरबस्ति का प्रयोग करना चाहिये । इसी प्रकार रजो संबंधी रोगो में भी उस को शुद्धि करने लिये स्नेहन आदि लेकर उत्तरबस्ति तक की विधियों का उपयोग करे एवं नाना प्रकार के शोधन औषधियों के कषाय व तिल के तैलं से युक्त योग्य औषधियों के कल्क को विधि प्रकार पीवे । तथा रजोविकारनाशक व पथ्यभूत आचमन [ औषधियों के कषाय से योनि को धोना ] धूप, लेप, शोधनक्रिया का शास्त्रक्त विधि से प्रयोग योनिप्रदेश में करें ॥१४॥१५॥ । पित्तादिदोषजन्याविरोगचिकित्सा. दुर्गधपूयनिभमज्जसमार्तवेषु देवद्रुमाघ्रसरलागरुचंदनानाम् । कायं पिबेत्कफमरुद्ग्रथिताप्रभूतग्रंथ्यानवे कुटजसत्कटुकत्रयाणाम् ॥१६॥ । भावार्थ:-दुर्गंधयुक्त, व पीप व मज्जा के सदृश आर्तव में देवदार वृक्ष, आम्र सरलवृक्ष, अगरु, चंदन इन के काथ को पायें। कफ व वात विकार से उत्पन्न ग्रंथिभूत [गांठ से युक्त ] रजो रोग मे कुडा व त्रिकटु के क्वाथ को पीवें ॥१६॥ - शुद्धशुक्र का लक्षण. एवं भवेदतितरामिह बीजशुद्धिस्निग्धं सुगंधि मधुर स्फटिकोपलाभ। ... . क्षौद्रोपमं तिलजसन्निभमेव शुक्रं शुद्धं भवत्यधिकमयसुपुत्रहंतुः ॥१७॥ भावार्थ:-उपर्युक्त विधि से वीर्य का शोधन करें तो वीर्यशुदि हो जाती है। जो वार्य अत्यंत स्निग्ध, सुगंध, मधुर, स्फटिक शिलाके समान, मधु व सफेदतिल के तैल के समान हैं, उसे शुद्ध शुक्र समझना चाहिये अर्थात् शुद्ध शुक्र के ये लक्षण हैं । ऐसे शुद्धवीर्य से ही उत्तम संतान की उत्पत्ति होती है ॥१७॥ .. शुद्धातव का लक्षण. शुद्धार्तवं मणिशिलाद्रवहंसपादिपंकोपमं शशशरीरजरक्तवच्च । लाक्षारसपतिममुज्वलकंकुमाभं प्रक्षालितं न च विरज्यत तत्सुवीजम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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