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(१०४)
कल्याणकारके
अथ सप्तम परिच्छेदः।
अथ चिकित्सासूत्राधिकार । मंगलाचरण व प्रतिक्षा। जिनेंद्रमानंदितसर्वसत्वं । जरारुजामृत्युविनाशहेतुं ॥ प्रणम्य वक्ष्यामि यथानुपूर्व ।
चिकित्सितं सिद्धमहाप्रयोगैः ॥ १ ॥ भावार्थ:-जन्मजरामृत्युको नाश करनेके लिए कारणीभूत अतएव सर्वलोकको आनंदित करनेवाले श्री जिनेंद्र भगवानको प्रणामकर सिद्धमहाप्रयोगोंके द्वारा यथाक्रम चिकित्साका निरूपण करूंगा, इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ १ ॥
पुरुष निरूपण प्रतिक्षा। चिकित्सितस्याति महागुणस्य । य एवमाधारतया प्रतीतः ॥ स एव सम्यक्पुरुषाभिधानो।
निगद्यते चारुविचारमार्गः ॥ २ ॥ भावार्थ:- महागुणकारक चिकित्साके आधारभूत, और पुरुष नामांकित जो आत्मा है उसके स्वभाव आदि के विषय में सुचारुरूपसे कुछ वर्णन करेंगे इस प्रकार भाचार्य कहते हैं ॥ २ ॥
आत्मम्वरूप विवेचन । अनादिबद्धस्स कथंचिदात्मा । स्वकर्मनिर्मापितदेहयोगात् ॥ अमृतम्रतत्वनिजस्वभाव- ।।
म्स एव जानाति स पश्यतीह ।। ३ ॥ भावार्थ:---यह ज्ञानदर्शन म्वरूप ( अर्तिमान ) आत्मा अपने कर्मले रचित शरीरके द्वारा अनादि कालसे बद्ध है इसलिये वह कथंचित अमूर्तत्व कथंचित् मूर्तिमत्व, स्वभाव से युक्त है। ज्ञानदर्शन ही उसका लक्षण है इसलिये, वही सब बातों को जानता है, और देखता भी है । अत एव ज्ञाता द्रष्टा कहलाता है ॥ ३ ॥
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