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रसायनविधिः
दिव्यौषध प्राप्त न होने के कारण । दैवादज्ञानतो व धनरहिततया भेषजालाभतो वा । चित्तस्याप्यस्थिरत्वात्स्वयमिहनियतोद्योगहीन स्वभावात् ॥ आवासाभावती वा स्वजनपरिजनानिष्टसंपर्कतो वा । नास्तिक्यान्नानुवंति स्वहिततरमहाभेषजान्यप्युदाराः ॥ ६६ ॥
भावार्थ:- बडे २ श्रीमंत भी उपर्युक्त महाऔषधियोंको दैवसे, अज्ञानसे, वनाभावसे, औषधिके न मिलनेसे, चित्तकी अस्थिरतासे नियतउद्योगके रहित होनेसे, योग्य मकान के न होनेसे, अनिष्ट निजवंधुमित्रोंके संपर्क एवं नास्तिकभावोंके होने से प्राप्त नहीं कर पाते हैं ॥ ६६ ॥
अंतिमकथन |
इति जिनवक्त्रनिर्गतशास्त्रमहांनिषेः । सकलपदार्थविस्तृत तरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ४५ ॥
भावार्थ:- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्री जिनेंद्र के मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्र से निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ६७ ॥
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इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके स्वास्थ्यरक्षाणाधिकारे रसायनविधिष्ट परिच्छेदः ।
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इत्युप्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के स्वास्थ्यरक्षणाधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाविविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में रसायनविधि नामक छठा परिच्छेद समाप्त हुआ ।
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