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(७१४)
कल्याणकारक
. अथ हिताहिताध्यायः। इह तावदाचं वैद्य आहेतमेवेति निश्चीयते । यथा चोक्त
आईतं वैद्यमाय स्याद्यतस्तत्पूर्वपक्षतः ।
हिताहिताय विज्ञेयं स्याद्वादस्थितिसाधनम् ॥ इह सावदिताहिताध्याये स्वपक्षस्थापन कर्तुमुद्यतः स्याद्वादवादिनामुपरि पूर्वपक्षमेवमुद्घोषयत्याचार्यः । हिताहितानि तु यद्वायोः पथ्यं तत्पित्तस्यापथ्यमित्यनेन हेतुना न किंचिद् द्रव्यमेकांततो हिताहितं वास्तीति कृत्वा केचिदाचार्या' अवंति। तन्न सम्यगिह खलु द्रव्याणि स्वभावतस्संयोगतश्चैकांतहितान्येकांताहितानि च भवति । एकांतहितानि सजातिसात्म्यत्वात् सलिलघृतदुग्धौदनप्रभृतानि । एकांताहितानि तु दहनपचनमारणादिष्वपि प्रवृत्तान्यग्निक्षारविषाणि । संयोगतश्चापराणि विषसदृशान्येव भवति । हिताहितानि तु यद्वायोः पथ्यं तपित्तस्यापथ्यं वायोश्चासिद्धमित्यतम्तु न सम्यगित्येकांतवादिना प्रतिपादितं तत्तु न सम्यकथितमिति चेदेकांतशब्दः सर्वथावाची वर्तते न कथंचिद्वाची । सर्वथाशब्दस्यायमर्थः । सर्वत्र सर्वदा सर्वप्रकारैर्हितानि द्रव्याण हितान्येव भवंति चेत्, नववरातिसारकुष्टभगंदरातिसाराक्षिरोगप्रव्रणादिनिपीडितशरीरिणामपि
हिताहिताध्याय का भावानुवाद. यहांपर सबसे पहिले इस बातका निश्चय करते हैं कि आयुर्वेद में सबसे प्रथमस्थान आहेत आयुर्वेद के लिये ही मिल सकता है । कहा भी है ।
आहेत वैद्य [ आयुर्वेद ] ही प्रथम है । क्यों कि स्याद्वादकी स्थिति के लिये वह साधन है। और पूर्वपक्षसे हिताहितकी प्रवृत्ति निवृत्ति के लिये उपयुक्त है।
__ यहांपर अपने पक्षको स्थापन करने में प्रवृत्त आचार्य पहिले स्याद्वादवादियों के प्रति पूर्वपक्षको समर्थन करते हैं । बादमें उसका निरसन करेंगे ।
लोकमें पदार्थीका गुणधर्म अनेकांतात्मक है । जो बात के लिये हितकर है वह पित्तके लिये अहितकर है । अतएव द्रव्य हिताहितात्मक हैं । इस हेतुसे दुनियामें कोई भी द्रव्य एकांतदृष्टिसे हित या अहितरूपमें नहीं है इस प्रकार कोई आचार्य (जैनाचार्य 1 कहते हैं । यह ठीक नहीं है। क्यों कि लोक में द्रव्य अपने स्वभाव व संयोगसे एकांत हित व अहित के रूपमें देखे जाते हैं । एकांत हितकर तो रोगके लिये प्रयोजनीभूत जल, घृत, दूध व अन्न आदि हैं । एकांत अहित जलाने, पचाने, मारने आदि में
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