SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 763
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६७०) कल्याणकारके भावार्थ:-रस ( पारद-पारा) को रसराज भी कहते हैं । यह रस लोहों के संक्रमणक्रियाविशेषसे अर्थात् अभ्रक आदि लोहों से जारण आदि क्रियाविशेष के करने से बहुत अर्थ को उत्पन्न करता है। इस रस की [ मुख्यतः ) मूर्छन, मारण ( भस्मकरण ) बंधन इस प्रकार तीन तरह की क्रिया ( संस्कार ) कही गई है,जिन के तीन प्रकार के मिन्न २ फल होते हैं ॥ ३ ॥ त्रिविध संस्कार के भिन्न २ फल रसस्तु खलु मूञ्छितो हरति दुष्टरोगान्स्वयं । मृतस्तु धनधान्यभोगकर इष्यतेऽवश्यतः ॥ यथोक्तपरिमार्गबंधमिह सिद्ध इत्युच्यते । ततस्त्वतुलखेचरत्वमजरामरत्वं भवेत् ॥ ४ ॥ भावार्थ:-मूछित पारा अनेक दुष्ट रोगों को नाश करता है। मृत [भस्म किया हुआ ] रस धन धान्य की समृद्धि करके भोगोपभोगको उत्पन्न करता है । यथोक्त विधिसे बंधन किए हुए रस [ बद्धरप्त ] जो कि सिद्ध रस कहलाता है, उससे अप्रतिम खेचरत्व ( आकाश में गमन करने की शक्ति ) व अजरामरत्व प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ मूर्छन व मारण. पुराणगुडमर्दितो रसवरं स्वयं मूर्च्छये- । कपित्थफलसदसैम्रियत एव गोबंधनैः ॥ पलाशनिजबीज तद्रसमुचिक्कणै रकैः । रसस्य सहसा वो भवति वा कुचीवीजकैः ॥ ५ ॥ भावार्थ:- रसको पुराने गुड से मर्दित कर मूर्छित करना चाहिये अर्थात् ऐसा करने से रस मूर्छित होता है। कैथ के फल के रस से रस का मरण ( भस्म ) होता है। गोबंधन से पलाश बीज के चिक्कण रस से, जीरे से एवं कुर्ची बीज से रस का शीघ्र ही भस्म होता है ॥५॥ मृतरससेवनविधि. पिबेन्मृतरसं तु दोषपरिमाणमेवातुरो । विपकपयसा गुडेन सहितेन नित्यं नरः ॥ कनकनकघृष्टमिष्टवनितापयो नस्यम- । प्यनंतरमथांगनाकरविमर्दनं योजयेत् ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy