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________________ वातरोगाधिकारः। (१३५) भावार्थ:-क्षत व उष्णसे पीडित, तृषित, पांडु व मेहरोगके रोगीको उपवास किये हुएको, रक्तपित्तीको, अतिसारीको, जलोदर, विषरोग व मूर्छारोगसे पीडितको, गर्भिणीको एवं पित्तप्रकृतिबालेको, स्वेदन नहीं करना चाहिये ॥३२॥ वमनविधि । ततस्सलवणोग्रमागधिककल्कमित्रैः शुभैः। फलैस्त्रिफलकैस्तथा मदननामकैः पाचितम् ॥ सुखोष्णतरदुग्धमातुरमथागमे पायये- ।' निविष्टमिह जानुदधनमृदुस्थिरोच्चासने ॥ ३३ ॥ भावार्थ:-----इस तरह स्नेहन स्वेदन करनेके बाद सैंधा नमक, वच, पीपल इन तीनोंके कल्क से मिश्रित त्रिफला (हर्ड, बहेडा, आमला) व मेनफलको दूधमें पकाना चाहिये । रोगीको घुटने बराबर ऊंचे, स्थिर व मृदु श्रेष्ठ आसन पर बैठालकर उपर्युक्त प्रकारके सुखोष्ण दुधको प्रातःकालके समय पिलाना चाहिथे ॥ ३३ ॥ सुवांतलक्षण व वमनानंतर विधि । क्रमानिखिलभेषजोरुकफपित्तसंदर्शनात् । सुवांसमतिशांतदोषमुपशांतरोगोद्धतिम् ॥ नरं सुविहितान्नपानविधिना समाप्याययन । सहाप्यमलभेषजैः प्रतिदिनं जयेदामयान ॥ ३४ ।। भावार्थ:- इस के बाद गले में उगंली, या मृदु लकडी डालते हुए वमन करने के लिये कोशिश करनी चाहिये । बाद मे वमन शुरु होजाता है ) उस वमन में पहिले औषधि, फिर कफ, तदनंतर पित्त गिरजाय एवं दोषोपशमन, व रोगोद्रेक की कमी होजाय तो अच्छी तरह वमन होगया है ऐसा समझना चाहिये । पश्चात् ऐसे वामित मनुष्य को, पेया आदि योग्य अन्नपानकी योजना से, अग्नि को अनुकूल कर फिर रोगोंकी उपशांति के लिये औषध की व्यवस्था करनी चाहिये। विशेषः-वमन आदिक द्वारा शुद्ध किये गये मनुष्यका आहार सेवनक्रम:--- वमनादिकों से शरीर की शुद्धि करने के पश्चात् प्रायः उस मनुष्य की अग्नि मंद हो जाती है । उसको निम्नलिखित क्रम से बढ़ाना चाहिये । शुद्धि तीन प्रकारकी है । प्रधान ( उत्तम ) शुद्धि, मध्यमशुद्धि, जघन्य शुद्धि । इन तीनों प्रकार की शुर्दियों से शुद्ध करने के पश्चात् उस व्यक्तिको गरमपानी से स्नान कराकर, भूख लगनेपर जिस दिन शद्धि की हो उसी दिन शामको या दूसरे दिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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