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________________ (१३६) कल्याणकारके प्रातःकाल, रक्तशालि के अन्न को ( अग्नि बल के अनुसार ) खिलाते हुए, यथाक्रम से तीन २ दो २ एक २ अन्नकालों (भोजनसमय) में पेया, विलेपी, कृताकृतयूष, तथा दूध सेवन कराना चाहिए । तात्पर्य यह है कि किसीको प्रधान [ उत्तम ] शुद्धि द्वारा शब्द किया हो, उस को प्रथम दिन में दो अन्नकालों (सुबह शाम ) में पेया पिलावें, दूसरे दिन प्रथम अन्नकाल में पेया, द्वितीय अन्नकाल में विलेपी, तृतीय दिन प्रथम, द्वितीय अन्नकाल में विलेपी, चौथे दिन, प्रथम द्वितीय अन्नकालमें अकृत यूष ( दालका पानी ) के साथ, पांचवें दिन में प्रथम अन्नकालमें कृतयूष के साथ लाल चावल के भात, ( अथवा एक अन्नकालमें अकृतयुष दो कालोंमें कृतयूष के साथ ) द्वितीय अन्नकाल तथा छटवें दिन दोनों अन्नकालोंमें दूध भात देना चाहिए। सातवें दिन स्वस्थपुरुषके समान आहार देना चाहिए। इसी तरह मध्यमशुद्धि में दो२ अन्नकालों में, जघन्यशुद्धि में एक २ अन्नकाल में पेया आदि देना चाहिए । जवन्यशष्दि में एक २ अन्नकाल में पेया आदि देने के कारण, कृतयूष अकृतयूष इन दोनोंको दे नहीं सकते क्यों कि अन्नकाल एक है। चीज दो है। इसलिये इस शुद्धिमें या तो अकृतयूष ही देवें, अथवा कृताकृत मिश्रकरके देखें। ऊपर जो पेयादि देनेका क्रम बतलाया है वह सर्व साधारण क्रम है। लेकिन, देश, काल, प्रकृति, सात्म्य, दोषोद्रेक आदि के तरफ ध्यान देते हुए, अवस्थाविशेष में उस क्रममें कुछ परिवर्तन भी वैद्य कर सकता है । पेयाके स्थान में यवागू भी दे सकता है । तीव्राग्नि हो तो प्रारंभमें ही दूध भात भी दे सकते हैं आदि जानना चाहिये । - पेयाः-दाल चावल आदि को चौदह गुण जल में इतना पकावे जो पीने लायक रहें और दाल आदि के कण भी उसी में रहें उसे पेया कहते हैं। विलेपी:-जो चतुर्गुण जलमें तैयार की गई हो, जिस में से दाल आदि के कण नहीं निकाले हों, और इस में द्रवभाग अत्यल्प हो अर्थात् वह गाढी हो, उसे विलेपी कहते हैं। युष:----एक भाग धुली हुई दाल को अठारह गुने जल में पकावें । पकते २ जब पानी चतुर्थीश रहें तब, वस्त्र में छान लेवे इस को यूप कहते हैं । अर्थात् दालके पानीको यूष कहते हैं। कृतयूषः----जिस गूप में सोंट मिरछ, पपिल, घी सेंधानमक डाल कर सिद्ध करते हैं उसे कृतयूष कहते हैं। . अकृतयुष-जो केवल दाल का ही यूष हो सोंठ आदि जिसमें नहीं डाला है। उसे अकृतयूष कहते हैं ।। ३४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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