________________
क्षुद्ररोगाधिकारः।
AAAAN
क्रियामिमां दंतगलामयेष्विह । प्रयोजयेद्दोषविशेषभेषजैः। चलंतमुद्यच्छुषिराख्यदंतकं । समुद्धरेन्मूलमिहाग्निना दहेत् ॥५६॥
भावार्थ-दंत व गल रोगोमें उनके दोषोंको विचारकर योग्य औषधियों का प्रयोग करना चाहिये। जिसमें शुपिरदन्तक नामक रोग होकर दांत हिलता हो उसमें दांत को उखाडकर दंतमूल को अग्निसे जलादेवें ॥ ५६ ॥
देतहर्ष चिकित्सा. स्वदंतहर्षेपि विधिविधीयते । महानिलघ्नाधिकभेषजान्वितः ॥ हितं च मुस्निग्धसुखोष्णभोजनं । घृतस्य भुक्तोपरि पानमिष्यते ।।५७॥
भावार्थ:-दंतहर्ष रोगमें विशेषतया वातनाशक औषधियोंके प्रयोगसे चिकित्सा की जाती है । उसके लिए स्निग्ध (घृत, तैल, दूध आदि ) व सुखोष्ण भोजन करना हितकर है व भोजनानंतर घृतपान करना चाहिये ॥ ५७ ॥
दंतशर्करा कापालिका चिकित्सा. स दंतमूलक्षतमावहन् भृशं । समुद्धरेदंतगतां च शर्कराम् ॥ .
कपालिकां कृच्छूतरां तथा हरेत् । सुखोणतैलैः कवलग्रहैस्तयोः ॥५८॥ ' भावार्थ:-दांतोंके मूलमें जखम न हो इस प्रकार दांतोंमें लगी हुई शर्करा को निकाल देवे। कष्टसे साध्य होनेवाली कापालिका को भी निकाले । एवं इन दोनोंमे अल्प गरम तैलसे, कवल धारण करावें ॥ ५८ ।।
हनुमोक्ष-चिकित्सा. ततो निशायुक्तकटुत्रिकान्वितैः । ससिंधुतैलैः प्रतिसारयेद्भिषक् ॥ । हनुप्रमोक्षार्दितवाद्विधीयता- । मितोऽत्र जिहामयपंचके तथा ॥ ६९ ॥
भावार्थ:-इस के बाद, हलदी, सोंठ, मिरच, पीपल, सेंधानमक तैल इन को दांतोपर प्रतिसारणा करें[बुरखें ] । हनुमोक्ष दंतरोग की अदितवात के अनुसार चिकित्सा करें । अब यहां से आगे पांच प्रकार के जिह्वा रोगोंका वर्णन करेंगे ॥ ६९ ॥
जिव्हागत पंचविधरोग. त्रिभिस्तु दोषरिह कंटकाः स्मृताः । स्ववेदनाविष्कृतरूपलक्षणाः ।। ततो हरिद्रालवणैः कटुत्रिकै- । विघर्षयेत्तैलयुतमरुत्कृतान् ॥ ६० ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org