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(४१२)
कल्याणकारके
कृमिघ्न स्वरस. अपि शिरीषरसं किणिहीरसं । प्रवरकेंचुककिंशुकसदसम् ॥ तिलजमिश्रितमेव पिवेन्नरः । प्रिमिकुलानि विनाशयितुं ध्रुवं ॥ १४ ॥ .
भावार्थ:-सिरस, चिरचिरा, केमुक, पलाश, इनके रस को तिलके तेलमें मिलाकर पीनेसे क्रिमियोंका समूह अवश्य ही नष्ट होता है ॥ १४ ॥
विडंग चूर्ण. कृतविडंगविचूर्णमनेकशः । पुनरिहायशकुद्रसभावितम् ॥ तिलजशकरया च विमिश्रितं । क्रिमिकुलप्रलयावहकारणम् ॥ १५ ॥
भावार्थ- वायविडंगके चूर्ण को अच्छी तरह कईबार घोडे की लीद के रस से भावना देकर फिर तिलका तेल व शक्कर के साथ मिलाकर उपयोग करने पर क्रिमिकुल अवश्य ही नष्ट होता है ॥ १५ ॥
मूषिककर्णादियोग. अपि च मूषिककर्णरसेन वा । प्रवररालिविडंगविचूर्णितम् । परिविलोड्य घृतेन विपाचितं । भवति तरिक्रमिनाशनभक्षणम् ॥१६॥
भावार्थ--रालि [१] वायुविडंग के चूर्ण को मूसाकानी के रस में घोलें । फिर उसे घृतके साथ पकाकर खानेपर क्रिमिनाश होता है ॥ १६ ॥
कृमिनाशक तैल. वितुषसारविडंगकषायभाविततिलोद्भवमेव विरेचनी- ॥ . षधगणैः परिपकमिदं पिबन् । क्रिमिकुलक्षयमाशु करोत्यमौ ॥ १७ ॥
भावार्थ-तुषरहित वायुविडंग के कषाय से भावित तिल से निकार हुए तैल को विरेचनौषधिगणोंके द्वारा पकाकर पीनेसे सर्व क्रिमिरोग शीघ्र ही दूर होते
___सुरसादि योग. सुरसबंधुरकंदलकंदकैः । परिविपकसुतक्रममिलकाम् ।। अशिशिरां सघृता त्रिदिनं पिबे- । दुदरसर्पविनाशनकारिकाम् ॥ १८ ॥
भावार्थ:---तुलसी, वायविडंग, सफेदखर कंदक ( बन सूरण ) इन से पकायी हुई छाछ से मिश्रित गरम कांजी में घी मिलाकर तीन दिन पीने से उदर में रहने वाली संपूर्ण कृमि नष्ट हो जाती हैं ॥ १८ ॥
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