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(६१८ )
कल्याणकारके
सुतीक्ष्णबस्ति वितरेद्यथोचितं विरेचनं चात्र विधीयते बुधैः । । . . . . अजीर्णकालेऽत्यशने मलाधिक प्रभूतबस्तिहिमशीतलोपि वा ॥ ११० ॥
अथेह दत्तं च करोति वेदनामतीव चाध्मानमतोऽत्र दीयते । तथानिलघ्नोऽग्निकरोतिऽतिशोधनो। प्रधानबस्तिर्वरबस्तिशास्त्रतः॥१११॥
भावार्धः- अत्यंत शीतल अथवा अल्पगुणशक्तियुक्त व कम प्रमाणके औषधियोंसे प्रयुक्त बस्तिसे अयोग होता है,अर्थात् शीतल आदि औषधोंको बस्तिमें प्रयोग किया जाय तो वह ऊपर चला जाता है (बाहर नहीं आता हे)जिसस भयंकर आध्मान (अफरा) व अत्यंत वेदना होती है । इस अयोग कहते हैं । यह अयोग होने पर तीक्ष्ण बस्तिका प्रयोग करें एवं यथोचित [ जैसा उचित · हो वैसा ] विरेचन भी देवे । आध्मान का कारण लक्षण व चिकित्सा----अजीर्ण होने पर, अत्यधिक भोजन करने पर एवं शरीर में दोष बहुत होने पर, अधिकप्रमाण में बस्ति का प्रयोग करें, अथवा शीतल बस्ति का प्रयोग करे तो [ हृदय, पसवाडा, पीठ आदि स्थानों में ] भयंकर शूल व आध्मान ( अफरा ) उत्पन्न होता है । इसे आध्मान कहते हैं । ऐसी अवस्था में बस्तिशास्त्र में कथित वातनाशक, अग्निदीपक और संशोधन प्रधानबस्ति । निरूह ] का प्रयोग करें ॥ १०९ ॥ ११० ॥ १११ ॥
परिकर्तिकालक्षण व चिकिल्ला. अतीव रूक्षेप्यतितीक्ष्णभेषजे-। प्यतीव चोष्णे लवणेऽधिकेऽपि वा ।। करोति बस्तिः पवनं सपित्तक । ततोऽस्य गात्रे परिकर्तिका भवेत् ।। ११२ ॥ यतस्समग्रं गुदनाभिवरितकं । विकृष्यते तत्परिकर्तिका मता ॥ ततोऽत्र यष्टीमधुपिच्छिलौषधै-।
निरूहयेदप्यनुवासयेदतः ॥ ११३ ॥ भावार्थ:-अत्यंत रूक्ष, तीक्ष्ण, अत्यंत . उष्ण व अत्यधिक लवण स युक्त औषधियों द्वारा किया हुआ बस्तिप्रयोग उष्णपित्त से युक्त वायु को प्रकुपित करके परिकर्तिका को उत्पन्न करता है । जिसमें संपूर्ण गुदा, नाभि, बस्ति ( मूत्राशय ) प्रदेशे। को खींचने या काटने जैसी पीडा होती है। उसे
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