________________
क्षुद्ररोगाधिकारः।
(३८७)
कफजकास चिकित्सा. श्लेष्मकासमभयाघनशुण्ठी- चूर्णमाशु विनिहंति गुडेन ॥ छर्दनं तनुशिरोऽतिविरेकाः । तीक्ष्णधूमकबलाः कटुलेहाः ॥ २३ ॥
भावार्थ:-खस, मोथा, शुण्ठी, इनके चूर्णको गुडके साथ खायें तो श्लेष्मज कास दूर होता है । एवं वमन, विरेचन, शिरोविरेचन, तीक्ष्ण धूमपान व कवल धारण कराना एवं कटुलेहोंका चटाना भी कफज कास में हितकर है ॥२३॥
क्षतज, क्षयजकासचिकित्सा. यःक्षतक्षयकृतश्च भवेत्तं । कासमामलकगोक्षुरख—- ॥ रप्रियालमधुकोत्पलमाडौँ- । पिप्पलीकृतसमांशविचूर्णम् ॥२४॥ शर्कराघृतसमेतमिदं मं- । वक्षमात्रमवभक्ष्य समक्षम् ॥ क्षीरभुक् क्षपयतीह समस्तं । दीक्षितो जिनमते दुरितं वा ॥२५॥
भावार्थ:-आमला, गोखरू, खजूर, चिरौंजी मुलैठी, नीलकमल, भारंगी, पिप्पली इनको समान अंशमें लेकर चूर्ण बनावें। इससे, एक तोला चूर्ण को घी व शक्कर मिलाकर शीघ्र भक्षण करें और दूधके साथ भोजन करते रहें तो यह समस्त क्षत व क्षयसे उत्पन्न कासको नाश करता है, जैसा कि जनमतमें दीक्षित व्यक्ति कर्मीको नाश करता है ॥ २४॥२५ ॥
सक्तुपयोग. शालिमाषयरषष्टिकगोधू- । मप्रभृष्टवरपिष्टसमेतम् ॥ माहिषं पय इहाज्यगुडाभ्याम् । पाययत् क्षयकृतक्षयकासे ॥ २६ ॥
भावार्थ:-चावल, उडद, जौ, साठीधान्य, गेंहू इनको अच्छीतरह भूनकर पीसे, इस में घी गुड मिलाकर भैसके दूध के साथ पिलानेसे क्षयज कास नाश होता है ॥ २६॥
अथ विरसरोगाधिकारः।
विरसनिदान व चिकित्सा. दोषभेदविरसं च मुखं प्र-। क्षालयेत्तदनुरूपकषायैः ।। दंतकाष्टकबलग्रहगण्डू- । पौषधैरपि शिरोऽतिविरेकैः ॥२७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org