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________________ हिताहिताध्यायः। ( ७३७ ) पिशितमभक्ष्यमेव पिशिताशिमृगेषु तदृष्यतेऽत्र तपिशितपयःशकृज्जलमलं परिहत्य, तृणाशिनां पयो ।। जलमुपसंख्ययाष्टविधमेव यथाईमहौषधेष्वति मथितसमस्तशास्त्रकथनं कथयत्यधिकं तृणादिषु ॥ इत्यनेकहेतुदृष्टांतसंतानक्रमेण पूर्वापरविरोवदोषदुष्टमतिकष्टं कनिष्ठ बीभत्सं पूतिकृमिसंभवं मूलतंत्रव्याघातकं मांसमिति निराकृतं, तदिदानींतनवैद्याःपूर्वापरविरोधदुष्टं परित्यक्तुमशक्ताः । कनिष्ठुरंतरालयतिभिरन्यैरेव मांसाधिकारः कृत इति स्वयं जानन्तोऽप्यज्ञानमहांधकारावगुंठित हृदयमिथ्यादृष्टयो दुष्टजना विशिष्टवर्जितं मधुमद्यमांसमनवरतं भक्षयितुमभिलषते । दोषप्रच्छादनार्थमन्येषां सतां लौकिकानां हृदयरंजननिमित्तं तत्संतोषजननं संततमेवमुद्घोषयति । न हि सुविहितबहुसम्मतवैद्यशास्त्रे मांसाधिकारो मांसभक्षणार्थमारभ्यते, किंत स्थावरजंगमपार्थिवा. दिद्रव्याणां रसवीर्यविपाकविशेषशक्तिरीदृशी इत्येवं सविस्तरमत्र निरूप्यत इति न दोषः । तदेतत्समस्तं पिशितभक्षणावरणकारणोक्तवचनकदंबकं मिथ्याजालकलंकितमवलोक्यते। कथं? मांस अभक्ष्य ही है, क्यों कि वह मांसभक्षक प्राणियों के शरीर में दूषित होता है। अतएव उन मांसभक्षक प्राणियों के शरीर का मांस दूध, मल, मूत्र आदि को छोड कर तृणभक्षक प्राणियों का मल, मूत्र, दूध आदि जो आठ प्रकार की संख्या से जो कहे गए हैं उन्हीं का ग्रहण औषधों में करने के लिए समस्त शास्त्रों का कथन है। इस प्रकार अनेक हेतु व दृष्टांतोंकी परंपरा से मांस का कथन पूर्वापरविरोध दोष से दूषित है, अत्यंत कष्टदायक, अत्यंत नीचतम, घृणा के योग्य व कृमिजनन के लिए उत्पत्तिस्थान व मूलतंत्र के व्याघातक है । अतएव उसका निराकरण किया गया है। परंतु आजकल के वैद्य ऐसे पूर्वापरविरोधदोष से दुष्ट मांस को छोडने में असमर्थ है। पूर्वाचार्यों के ग्रंथो में न रहनेपर भी बीच के ही क्षुद्र हृदयोंके द्वारा यह बाद में जोडा गया है, यह स्वयं जानते हुए भी अज्ञानमहांधकार से व्याप्तहृदयवाले मिथ्यादृष्टि दल · मनुष्य, शिष्टोंके द्वारा त्याज्य मधुमद्य मांस को सदा भक्षण करने की अभिलाषा करते हैं। साथ ही दोषको आच्छादन करनेके लिए एवं अन्य सजनों के चित्त को संतुष्ट करने के लिए हमेशा इस प्रकार कहते हैं कि बहुसम्मत वैद्यशास्त्र में मांसभक्षण करने के लिए मांसाधिकार का निर्माण नहीं किया है। अपितु स्थावर जंगम पार्थिवादि द्रव्यों के रसौर्य विपाक की शक्ति इस प्रकार की है, यह सूचित करने के लिए मांस का गुण दोष विस्तार के साथ विचार किया गया है। अतएव दोष नहीं है । इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि यह सब मांसभक्षण के . दोष को ढकनेके लिये प्रयुक्त वचनसमूह मिथ्यात्वजाल से कलंकित होकर देखा जाता है । क्यों है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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