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उत्तरतंत्राधिकारः।
(५५९)
अयैकविंशः परिच्छेदः
उत्तरतंत्र.
मंगलाचरण. श्रीमद्वीरजिनेंद्रमिंद्रमहितं वंद्य मुनींद्वैस्सदा । नत्वा तत्वविद मनोहरतरं सारं परं प्राणिनां ॥ प्राणायुबलवीर्यविक्रमकरं कल्याणसत्कारकं ।
स्यात्तंत्रोत्तरमुत्तमं प्रतिपदं वक्ष्ये निरुद्धोत्तरम् ॥ २ ॥ भावार्थः-इंद्रोंसे पूजित व मनींद्रों से वंदित श्रीवीर जिनेंद को नमस्कार कर तत्वज्ञानियों के लिये मनोहर व सर्वप्राणियों के सार स्वरूप, व उन के प्राण, आयु, बल व वीर्य को बढानेवाले (कल्याणकारक) सब को कल्याण करनेवाले उत्तम उत्तरतंत्र का प्रतिपादन करेंगे ॥ १ ॥
लघुताप्रदर्शन. उक्तानुक्तपदार्थशेषमखिलं संगृह्य सर्वात्मना । वक्तुं सर्वविदा प्रणीतमधिकं को वा समर्थः पुमान् ॥ इत्येवं सुविचार्य वर्जितमपि प्रारब्धशास्त्रं बुधैः ।।
पारं सत्पुरुषः प्रयात्यरमतो वक्ष्यामि संक्षेपतः ॥२॥ भावार्थ:-सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित लोक के उक्त व अनुक्त समस्तपदार्थीको सर्वतोभावसे संग्रह कर प्रतिपादन करने के लिये, कौन मनुष्य समर्थ है ? इस प्रकार अच्छीतरह विचार कर छोडे हुए शास्त्र को भी पुनः प्रारंभ कर विद्वानोंकी सहायता से सत्पुरुष पार हो जाते हैं । इसलिये यहां भी हम विद्वानों की सहायता [अन्य आचार्य प्रतिपादित शास्त्र के आधार ] से उस को संक्षेप से निरूपण करेगे॥२॥
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