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कर्मचिकित्साधिकारः ।
(५७३ )
अनेक वर्णकी रेखावोंसे युक्त शरीरवाला है वह " इंद्रायुधा" नामक जलूक है । जो किंचित् काले व पीले वर्णसे संयुक्त है, जिसके शरीर नाना प्रकार के पुष्पों के समान चित्रों से विचित्रित है यह " सामुद्रिका " नामक जौंक है। ये दोनों जौंक तीव्रविषसंयुक्त होने से प्राणियोंको कष्टदायक होते है। इसलिये, ये भी जलौंकाप्रयोग में न्यान्य हैं ॥ ३७॥
. गोवंदनालक्षण व सविषजूलूकादष्टलक्षण. गोश्रृंगद्वयवत्तथा वृषणवध्दार्याप्यधोभागतः । स्विना स्थलमुखी विषेण विषमा गोचंदनानामिका ॥ ताभिर्दष्टपदातिशोफसहिताः स्फोटास्सदाहज्वर- ।
च्छर्दिमूर्छनमंगसादनमदालक्ष्माणि लक्ष्याण्यलं ॥ ३८ ॥ भावार्थ:-जिस के अधोभाग में गायके सींगके समान व वृषण के समान दो प्रकार की आकृति है अर्थात् दो भाग मालूम होते हैं, जो सदा गीली रहती है, और सूक्ष्म मुखवाली है एवं भयंकर विष से युक्त है, उसे "गौचंदना" कहते हैं। इन विषमय जलूकावोंके काटनेपर, मनुष्य के शरीर में अत्यंत सूजन, फफोले, दाह, ज्वर, वमन, मूर्छा, अंगसाद व मद ये लक्षण प्रकट होते हैं ॥ ३८ ॥
सविपजलौकदष्टचिकित्सा. तासां सर्पविषोपमं विषमिति ज्ञात्वा भिषग्भेषजं । प्रोक्तं यद्विषतंत्रमंत्रविषये तद्योजयेदूर्जितम् ॥ पानाहारविधावशेषमगदं प्रख्यातकीटोत्कट-।
प्रोदृष्टोग्रविषनमन्यदखिलं नस्यप्रलेपादिषु ॥ ३९ ॥ भावार्थ:-उन विषमय जलौकोंका विष सपके समान ही भयंकर है, ऐसा समझकर कुशल वैद्य विषगातंत्राधिकार में बतलाये गये विपन्न, अगद, मंत्रा, आदि विषनाशक उपायोंको उपयोग करें । पान व आहार में भी सम्पूर्ण अगद का प्रयोग करें । एवं प्रसिद्ध कीटों के भयंकर विष को नाश करनेवले जो कुछ भी प्रयोग बतलामे गये हैं उन सब को नस्य, आलेप, अंजन आदि कार्यों में उपयोग करें ॥३९।।,
निर्विषजलोकोंके लक्षण.
___ कपिला लक्षण इत्येवं सविषा मया निगदिता सम्यग्जलूकास्ततः । संक्षेपादविषाश्च षट्स्वपि तथा वक्ष्यामि सल्लक्षणैः ॥.
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