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सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः ।
(६५९ )
स्थाने चंक्रमणासने च शयने दुःखप्रदो वृश्चिका-।
विद्धस्येव भवेत्तृषात्यरुचिकृच्छ्राभो विदग्धः स्मृतः ॥८१॥ भावार्थ:- जिस में अनेक प्रकार की अत्यधिक पीडा होती हो, जो बहुत ही उष्णतासे आकुलित हो, बहुत ही विवर्ण हो गया हो, फूले हुए बस्ति ( मशक ) के समान तना हुआ हो, खडे रहने में, चलने फिरने में, बैठने में, सोने में दुःख देता हो, जिस में बिच्छू काटे हुए के समान वेदना होती हो, जिस के होते हुए तृषा व अरुचि अधिक होती हो, और भयंकर हो तो उसे विदग्ध शोथ समझना चाहिये अर्थात् ये विदग्धशोथ के लक्षण हैं ॥ ८१॥
पक्कशोथ लक्षण. यश्च स्याद् पशांतरुङ्मृदुतरी निर्लोहितोऽल्पस्स्वयं । कण्डूत्वक्परिपोटतोदवालनिम्नाद्यैः सतां लक्षितः ॥... अंगुल्याः परिपीडिते च लुलितं भूयो धृतौ वारिव- ।...
घः शीतो निरुपद्रवो रुचिकरः पक्कः स शोफः स्मृतः ॥४२॥ ___ भावार्थ:-जिस में पीडा की शांति होगई है, मृदु है, लाल नहीं है, ( सफेद है) सूजन कम होगया है, खुजली चलती है, त्वचा कटने लगती है, सूई चुभने जैसी पीडा होती है, बली पडती है, ( तनाव का नाश होता है) देखने में गहरी मालूम होती है, अगुली से दबानेपर जल से भरे हुए मशक के समान अंदर पीप इधर उधर जाती है, छूने में शांत है, उपद्रवों से रहित है, जिस के होते हुए अन्न में रुचि उत्पन्न होती है [ अरुचि नष्ट होती हैं ] उसे पक्क शोथ समझना चाहिये ॥ ८२ ॥
व.फजन्यशोथ के विशिष्टपक्कलक्षण. गंभीरानुगते बलासजनिते रोगे सुपक्व क्वनि-। नमुह्येत्पक्कसमस्तलक्षणमहप्त्वाऽपक एवेत्यलम् ।। वैद्यो यत्र पुनश्च शीतलतरस्त्वक्साम्यवर्णान्वितः।
शोफस्तत्र विनीय मोहमाखिलं हित्वाशु संशोधयेत् ।। ८३ ॥ भावार्थ:---गम्भीर [ गहरी ] गतिवाला कफजन्य शोथ अच्छी तरह पक जाने पर भी, सम्पूर्ण पक लक्षण न दिखने के कारण, कहीं २ उसे अपक्क समझ कर वैद्य मोह को प्रत होता है। अर्थात् विदारण कर शोधन नहीं करता है। इसलिये ऐसे
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