________________
(६६०)
कल्याणकारके
शोथ में, शीतलस्पर्श व स्वस्थ त्वचा के समान वर्ण देख कर अपने सम्पूर्ण अज्ञान को त्याग कर शीघ्र ही उसे शोधन करना चाहिये ।। ८३ ॥
शोथोपशमनविधि. - आमं दोषविशेषभषजगणालेपैः प्रशांति नये-।
ढुष्टैः पाचनकैर्विदग्धमधिकं संपाचयेद्वंधनैः ।। पक्कं पीडनकैस्सुपीडितमलं संभिद्य संशोधये- ।
द्वध्वा बंधनमप्यतीव शिथिलो गाढस्समश्चोच्यते ॥ ८४ ॥ भावार्थ:-आम शोथ को दोषों को प्रशमन करने वाले औषधियों से लेपन कर उपशांत करना चाहिये । विदग्ध शथ को क्रूर पाचन औषधियों के पुल्टिश बांध कर पकाना चाहिये । पक्क शोथ को पीडन औषधियों द्वारा पीडित कर और भेदन [भिद ] कर एकदम् ढीला, कस के या मध्यम ( न ज्यादा ढीला न अधिक कस के) रीति से,[ जिस की जहां जरूरत हो ] बंधन { पट्टी ] बांधकर संशोधन करना चाहिये । इन शिथिल आदि बंधन विधानों को अब कहेंगे ॥ ८४ ॥
· बंधनविधि. संधिध्वक्षिषु बंधनं शिथिलमित्युक्तं समं चानने । शाखाकणंगले समेवृषणे पृष्ठोरुपार्थोरसि || गाढं स्फिक्छिरसोरुवंक्षजघने कुक्षौ सकक्षे तथा ।
योज्यं भेषजमनिर्मितभिषा भैषज्यविद्याविदन् ॥८५॥ भावार्थ:-शरीर के संधिस्थानो में, नेत्रो में सदा शिथिल बंधन ही बांधना चाहिये । मुख, हाथ, पैर, कान,गला, शिश्नेंद्रिय, अंडकोष, पीठ, दोनों पार्व[ फसली ] और छाती इन स्थानो में समबंधन [ मध्यम गति से ] करना चाहिये । चूतड, शिर, गङ् जघन स्थान, कुक्षि [ कूख ] कक्ष इन स्थ नों में गाढ [वस के ] बंधन करना चाहिये । भेषज कर्म में निपुण वैद्य भैषज्य विद्या को जानते हुए अर्थात् ध्यान में रख कर उपरोक्त प्रकार बंधनक्रिया करें ॥ ८५ ॥
अज्ञवैद्यनिंदा. यश्चात्माज्ञतयाममाशु विदधात्यत्यंतपक्कोयमि- । त्यज्ञानादतिपकमाममिति यश्चीपेक्षते लक्षणैः ।। तौ चाज्ञानपुरस्सरौ परिहरेद्विद्वान्महापातको । यो जानाति विदग्धपक्कविधिवत्सोऽयं भिषग्वल्लभः ॥ ८६ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org